एक ऐसा समाज जहां ललित पाकॆ जैसी जगहों पर बने हुए घर हैं, जिनमें एक मकान में मधुमक्खी के छत्तों की तरह बने हुए कमरों में ६०-७० परिवारों के लगभग ३०० लोग रहते हैं। दूसरी तरफ, ऐसी आदशॆ सोसाइटियां हैं जहां अरबों रुपये की कीमत के फ्लैटों में बमुश्किल २०० लोग रहते हों। कोढ़ में खाज यह कि देश के शीषॆस्थ पदों पर काबिज लोगों ने गड़बड़झाला करके जरूरतमंदों के हाथ से छीनकर हथिया लिया हो।
जहां आदशॆ सोसाइटी में एक फ्लैट की कीमत ८५ लाख (असलियत में ८.५ करोड़, जैसा कि बताया जा रहा है) की कीमत वाले १०३ फ्लैट हैं, तो ललित पाकॆ स्थित लगभग २० से ३० लाख के एक मकान में रहने वाले ३०० लोग रहते थे, जिनमें से लगभग ७० लोग इस मकान के साथ जमींदोज हो चुके हैं।
ऐसे में इस मांग को शायद ही कोई गंभीरता से ले, लेकिन इसमें हजॆ भी क्या है। क्यों न ललित पाकॆ के लपीड़ितों को आदशॆ सोसाइटी के प्लैट ही राहत राशि के रूप में दे दिए जाएं।
मुखर
Thursday, November 18, 2010
Wednesday, August 26, 2009
भाजपा ने दी सजा, कांग्रेस ने दिया पुरस्कार
कांग्रेस में क्या भाजपा से भी ज्यादा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? यह सवाल अब इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि जहां जसवंत सिंह की किताब ‘जिन्ना: इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंस’ को लेकर भाजपा में तूफान मचा हुआ है वहीं शशि थरूर की पुस्तक ‘इंडिया: फ्राम मिडनाइट टु द मिलेनियम ऐंड बियान्ड’ को लेकर कांग्रेस में कोई हलचल नहीं है।
इन दोनों ही पुस्तकों में दरअसल एक बात समान है और वह है गांधी-नेहरू परिवार की आलोचना। शशि थरूर की पुस्तक जहां इंदिरा से लेकर राहुल गांधी तक को कटघरे में खड़ा करती है वहीं जसवंत सिंह की किताब में जिन्ना के साथ ही नेहरू, गांधी और पटेल को भी विभाजन के लिए समान रूप से जिम्मेदार माना गया है। फर्क अब सिर्फ इतना है कि भाजपा ने जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर कर दिया है, वहीं कांग्रेस ने थरूर को विदेश राज्यमंत्री जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप रखी है। थरूर ने पुस्तक 1997 में लिखी थी और तब वे कांग्रेस के सदस्य नहीं थे।
क्या लिखा है शशि थरूर ने
इंदिरा गांधी :‘इंदिरा गांधी बिना विजन वाली, बिना सोचे-समझे फैसले करती थीं। गरीबी हटाओ का उनका मंत्र बिना सिद्धांत वाला था। उन्होंने बिना सोचे-समझे देश में आपातकाल लगाने, प्रेस पर प्रतिबंध और विरोधियों को जेल भेजने का काम किया।
राजीव गांधी : थरूर ने किताब में लिखा है, राजीव ईमानदारी की बात कहते थे, लेकिन उन पर बोफोर्स मामले में धांधली का आरोप भी लगा। छोटे बच्चे तब कहते थे कि गली-गली में शोर है..।’
सोनिया गांधी : सोनिया गांधी के बारे में तो थरूर ने लिखा है कि, ‘एक बिल्डर की बेटी, बिना कालेज की डिग्री लिए, भारत की सभ्यता को जाने बिना, चेहरे पर गंभीरता का लबादा ओढ़े, भारत का भविष्य बन गई है।
और क्या लिख दिया जसवंत सिंह ने
नेहरू-पटेल : जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक लिखा है ‘सरदार पटेल ने पंजाब और बंगाल के विभाजन की शर्त पर बंटवारे को स्वीकारा था। जसवंत लिखते हैं- लार्ड माउंटबेटन के भारत आने के एक माह के अंदर ही वर्षो तक विभाजन के मुखर विरोधी नेहरू मुल्क के बंटवारे के समर्थक बन गए।
गांधी के बारे में : पुस्तक में जिक्र है कि 1920 तक गांधीजी पूरी तरह अपनी रौ में आ गए थे। इसके बाद जिन्ना कांग्रेस से किनारे किए जाते रहे। उनका मुसलमान होना ही उनके लिए नुकसान बन गया था।
क्यों बन गए जिन्ना भस्मासुर : जिन्ना को ‘उदार, सर्वधर्मग्राही और सेक्युलर’ माना जाता रहा था। जिन्ना को वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने ‘कांग्रेस से भी ज्यादा कांग्रेसी’ समझा था।
मृगेंद्र पांडेय
इन दोनों ही पुस्तकों में दरअसल एक बात समान है और वह है गांधी-नेहरू परिवार की आलोचना। शशि थरूर की पुस्तक जहां इंदिरा से लेकर राहुल गांधी तक को कटघरे में खड़ा करती है वहीं जसवंत सिंह की किताब में जिन्ना के साथ ही नेहरू, गांधी और पटेल को भी विभाजन के लिए समान रूप से जिम्मेदार माना गया है। फर्क अब सिर्फ इतना है कि भाजपा ने जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर कर दिया है, वहीं कांग्रेस ने थरूर को विदेश राज्यमंत्री जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप रखी है। थरूर ने पुस्तक 1997 में लिखी थी और तब वे कांग्रेस के सदस्य नहीं थे।
क्या लिखा है शशि थरूर ने
इंदिरा गांधी :‘इंदिरा गांधी बिना विजन वाली, बिना सोचे-समझे फैसले करती थीं। गरीबी हटाओ का उनका मंत्र बिना सिद्धांत वाला था। उन्होंने बिना सोचे-समझे देश में आपातकाल लगाने, प्रेस पर प्रतिबंध और विरोधियों को जेल भेजने का काम किया।
राजीव गांधी : थरूर ने किताब में लिखा है, राजीव ईमानदारी की बात कहते थे, लेकिन उन पर बोफोर्स मामले में धांधली का आरोप भी लगा। छोटे बच्चे तब कहते थे कि गली-गली में शोर है..।’
सोनिया गांधी : सोनिया गांधी के बारे में तो थरूर ने लिखा है कि, ‘एक बिल्डर की बेटी, बिना कालेज की डिग्री लिए, भारत की सभ्यता को जाने बिना, चेहरे पर गंभीरता का लबादा ओढ़े, भारत का भविष्य बन गई है।
और क्या लिख दिया जसवंत सिंह ने
नेहरू-पटेल : जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक लिखा है ‘सरदार पटेल ने पंजाब और बंगाल के विभाजन की शर्त पर बंटवारे को स्वीकारा था। जसवंत लिखते हैं- लार्ड माउंटबेटन के भारत आने के एक माह के अंदर ही वर्षो तक विभाजन के मुखर विरोधी नेहरू मुल्क के बंटवारे के समर्थक बन गए।
गांधी के बारे में : पुस्तक में जिक्र है कि 1920 तक गांधीजी पूरी तरह अपनी रौ में आ गए थे। इसके बाद जिन्ना कांग्रेस से किनारे किए जाते रहे। उनका मुसलमान होना ही उनके लिए नुकसान बन गया था।
क्यों बन गए जिन्ना भस्मासुर : जिन्ना को ‘उदार, सर्वधर्मग्राही और सेक्युलर’ माना जाता रहा था। जिन्ना को वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने ‘कांग्रेस से भी ज्यादा कांग्रेसी’ समझा था।
मृगेंद्र पांडेय
Friday, July 10, 2009
एक जाम में बिक जाते हैं जाने कितने खबरनवीस
मेरे एक मित्र शाम के समय एक शेर अक्सर बोला करते थे,
एक जाम में बिक जाते हैं जाने कितने खबरनवीस,
सच को कौन कफन पहनाता, गर ये अखबार न होते तो
ये शेर सुनाकर वह मुझ जसे छोटे से पत्रकार को अंदर तक झकझोर दिया करते थे। काफी हद तक उनका यह शेर पत्रकारिता के वर्तमान दौर पर सही प्रतीत होता है। यह जाम पत्रकार के स्तर के हिसाब से सिर्फ चाय पर सिमट जाता है तो इसका दायरा नोटों की थैली तक भी फैल जाता है। हर जाम के पीछे कोई न कोई कहानी छिपी होती है। किसी पत्रकार की वरिष्ठों को खुश करने की मजबूरी हो या फिर कंपनी की जरूरत। इसके पीछे पत्रकारों की आर्थिक मजबूरियां भी छिपी होती हैं।
फिर भी मैं सोचता हूं कि सारी नैतिकता की उम्मीद छोटे पत्रकारों से ही क्यों की जाती है। इसका जवाब मैं आप सभी ब्लॉगर भाइयों से भी चाहता हूं। कृपया मुङो जवाब देकर मुङो भ्रम की स्थिति से निकालिए।
आखिर में मैं अपनी बात एक शेर कहकर ही खत्म करना चाहता हूं,
कितना महीन है अखबार का मुलाजिम, खुद एक खबर है और सबकी खबर लिखता है।
एक जाम में बिक जाते हैं जाने कितने खबरनवीस,
सच को कौन कफन पहनाता, गर ये अखबार न होते तो
ये शेर सुनाकर वह मुझ जसे छोटे से पत्रकार को अंदर तक झकझोर दिया करते थे। काफी हद तक उनका यह शेर पत्रकारिता के वर्तमान दौर पर सही प्रतीत होता है। यह जाम पत्रकार के स्तर के हिसाब से सिर्फ चाय पर सिमट जाता है तो इसका दायरा नोटों की थैली तक भी फैल जाता है। हर जाम के पीछे कोई न कोई कहानी छिपी होती है। किसी पत्रकार की वरिष्ठों को खुश करने की मजबूरी हो या फिर कंपनी की जरूरत। इसके पीछे पत्रकारों की आर्थिक मजबूरियां भी छिपी होती हैं।
फिर भी मैं सोचता हूं कि सारी नैतिकता की उम्मीद छोटे पत्रकारों से ही क्यों की जाती है। इसका जवाब मैं आप सभी ब्लॉगर भाइयों से भी चाहता हूं। कृपया मुङो जवाब देकर मुङो भ्रम की स्थिति से निकालिए।
आखिर में मैं अपनी बात एक शेर कहकर ही खत्म करना चाहता हूं,
कितना महीन है अखबार का मुलाजिम, खुद एक खबर है और सबकी खबर लिखता है।
Thursday, July 9, 2009
जनता भुगतेगी मेनका और वरुण को जिताने की सजा
यह विडंबना ही है कि सत्ता पक्ष को नहीं जिताने की सजा क्षेत्र की जनता को ही भुगतनी पड़ती है। जबकि इन क्षेत्रों की कीमत पर कुछ क्षेत्रों को चमका दिया जाता है। अमेठी, रायबरेली इसके बड़े उदाहरण हैं। देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने की खुशफहमी पालने वाला उत्तर प्रदेश इसी दौर से गुजर रहा है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पूरे उत्तर प्रदेश को ही इसकी सजा दी जा रही है। पहले भी सत्तापक्ष को नहीं जिताने वाले क्षेत्रों को विकास की गंगा से महरूम किए जाने की परंपरा रही है। लेकिन क्या यह सही है? इस तरह की ब्लैकमेलिंग से जनता के बीच सरकार की छवि बेहतर हो सकती है।
एक दो ‘अनुकंपाओंज् को छोड़ दें तो इस बार के रेल बजट में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड आदि राज्यों को अनदेखी कर दी गई है। इन में उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र सबसे ऊपर आता है। तराई क्षेत्र (पीलीभीत, बरेली, शाहजहांपुर, आंवला, बदायूं, टनकपुर, लखीमपुर, गोला, मैलानी आदि।) को दुनिया के सबसे बड़े गन्ना, गेहूं और उत्पादक क्षेत्रों में गिना जाता है। इस क्षेत्र की सैकड़ों किलोमीटर लंबी छोटी रेल लाइन को ब्राड गेज में बदलने का प्रस्ताव दशकों पुराना है। इस पर कई बार सर्वे भी किया जाता है। ब्राड गेज से इस क्षेत्र के किसानों और काफी व्यापारियों को काफी फायदा होगा। लेकिन ममता बनर्जी को रेल बजट बनाते समय इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों बंगालियों की भी याद नहीं आई। इस क्षेत्र में राजनीतिक दल ब्राड गेज के मुद्दे पर राजनीति तो करते रहते हैं, लेकिन बजट के समय यह मुद्दा प्रभावी रूप से नहीं उठाते।
इसे वरुण गांधी और मेनका गांधी से जोड़कर देखें तो सही भी है कि जनता उन्हें जिताने की भारी कीमत चुका रही है। लेकिन सरकारों द्वारा क्षेत्र की जनता से इस तरह बदला लेना क्या उचित है। जनता सब देख रही है। इस ब्लैकमेलिंग को जनता भी देख रही है। यह ब्लैकमेलिंग अधिक दिन नहीं चलने वाली।
एक दो ‘अनुकंपाओंज् को छोड़ दें तो इस बार के रेल बजट में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड आदि राज्यों को अनदेखी कर दी गई है। इन में उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र सबसे ऊपर आता है। तराई क्षेत्र (पीलीभीत, बरेली, शाहजहांपुर, आंवला, बदायूं, टनकपुर, लखीमपुर, गोला, मैलानी आदि।) को दुनिया के सबसे बड़े गन्ना, गेहूं और उत्पादक क्षेत्रों में गिना जाता है। इस क्षेत्र की सैकड़ों किलोमीटर लंबी छोटी रेल लाइन को ब्राड गेज में बदलने का प्रस्ताव दशकों पुराना है। इस पर कई बार सर्वे भी किया जाता है। ब्राड गेज से इस क्षेत्र के किसानों और काफी व्यापारियों को काफी फायदा होगा। लेकिन ममता बनर्जी को रेल बजट बनाते समय इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों बंगालियों की भी याद नहीं आई। इस क्षेत्र में राजनीतिक दल ब्राड गेज के मुद्दे पर राजनीति तो करते रहते हैं, लेकिन बजट के समय यह मुद्दा प्रभावी रूप से नहीं उठाते।
इसे वरुण गांधी और मेनका गांधी से जोड़कर देखें तो सही भी है कि जनता उन्हें जिताने की भारी कीमत चुका रही है। लेकिन सरकारों द्वारा क्षेत्र की जनता से इस तरह बदला लेना क्या उचित है। जनता सब देख रही है। इस ब्लैकमेलिंग को जनता भी देख रही है। यह ब्लैकमेलिंग अधिक दिन नहीं चलने वाली।
Sunday, June 28, 2009
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद ने लुटाए 14 करोड़
मोहित पाराशर
भले ही जनता बिजली के लिए सड़कों पर उतरने पर आमादा है। लेकिन देश के माननीय बिजली पर जनता के करोड़ों रुपए लुटा रहे हैं। बीते साल राष्ट्रपति भन, प्रधानमंत्री के आधिकारिक आास और संस का बिजली का कुल बिल करीब 14 करोड़ रुपए रहा। सूचना का अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी में खुलासा हुआ है कि संस से 2008 में 6.25 करोड़ रुपए बिजली के बिल का भुगतान किया गया। वहीं, राष्ट्रपति भन का बिल 6.70 करोड़ रुपए रहा। इसके बा प्रधानमंत्री आास आता है जहां जनरी से सिंबर 2008 के बीच बिजली के बिल का 50.35 लाख रुपए भुगतान किया गया।
लिचस्प रूप से, राष्ट्रपति भन और प्रधानमंत्री कार्यालय का बिजली का बिल बीते तीन वर्षो में सबसे अधिक रहा। मुंबई के निासी आरटीआई ओक चेतन कोठारी ने कहा कि तुलनात्मक रूप से यह बीते तीन र्ष में आ किए गए कुल बिलों का आधा है। उन्होंने बीते चार र्ष में बिजली की यूनिट में हुई खपत और बिजली के लिए खर्च की गई राशि तथा आपातकालीन बिजली कटौती की स्थिति में उपलब्ध प्राधानों से जुड़ी जानकारी चाही थी।
प्रधानमंत्री आास का 2005 में पूरे साल का बिल 7.48 लाख, 2006 में 15.16 लाख और 2007 में 12.39 लाख रुपए रहा था। र्ष 2005 में राष्ट्रपति भन का बिल 3.20 करोड़ रुपए, 2006 में चार करोड़ और 2007 में 4.34 करोड़ रुपए रहा। इसमें धीरे-धीरे बढ़ोत्तरी हुई और र्ष 2008 में यह छह करोड़ रुपए से अधिक हो गया। जाब के मुताबिक प्रधानमंत्री के आास और कार्यालय के लिए पृथक मीटर नहीं है। राष्ट्रपति भन के बिल में प्रेसीडेंट एस्टेट का बिल भी शामिल है। संस के बिल में संस भन, पुस्तकालय की इमारत और एनेक्सी का बिल शामिल है।
भले ही जनता बिजली के लिए सड़कों पर उतरने पर आमादा है। लेकिन देश के माननीय बिजली पर जनता के करोड़ों रुपए लुटा रहे हैं। बीते साल राष्ट्रपति भन, प्रधानमंत्री के आधिकारिक आास और संस का बिजली का कुल बिल करीब 14 करोड़ रुपए रहा। सूचना का अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी में खुलासा हुआ है कि संस से 2008 में 6.25 करोड़ रुपए बिजली के बिल का भुगतान किया गया। वहीं, राष्ट्रपति भन का बिल 6.70 करोड़ रुपए रहा। इसके बा प्रधानमंत्री आास आता है जहां जनरी से सिंबर 2008 के बीच बिजली के बिल का 50.35 लाख रुपए भुगतान किया गया।
लिचस्प रूप से, राष्ट्रपति भन और प्रधानमंत्री कार्यालय का बिजली का बिल बीते तीन वर्षो में सबसे अधिक रहा। मुंबई के निासी आरटीआई ओक चेतन कोठारी ने कहा कि तुलनात्मक रूप से यह बीते तीन र्ष में आ किए गए कुल बिलों का आधा है। उन्होंने बीते चार र्ष में बिजली की यूनिट में हुई खपत और बिजली के लिए खर्च की गई राशि तथा आपातकालीन बिजली कटौती की स्थिति में उपलब्ध प्राधानों से जुड़ी जानकारी चाही थी।
प्रधानमंत्री आास का 2005 में पूरे साल का बिल 7.48 लाख, 2006 में 15.16 लाख और 2007 में 12.39 लाख रुपए रहा था। र्ष 2005 में राष्ट्रपति भन का बिल 3.20 करोड़ रुपए, 2006 में चार करोड़ और 2007 में 4.34 करोड़ रुपए रहा। इसमें धीरे-धीरे बढ़ोत्तरी हुई और र्ष 2008 में यह छह करोड़ रुपए से अधिक हो गया। जाब के मुताबिक प्रधानमंत्री के आास और कार्यालय के लिए पृथक मीटर नहीं है। राष्ट्रपति भन के बिल में प्रेसीडेंट एस्टेट का बिल भी शामिल है। संस के बिल में संस भन, पुस्तकालय की इमारत और एनेक्सी का बिल शामिल है।
Friday, June 26, 2009
खुशखबरी... अब छात्रों को नहीं करनी पड़ेगी आत्महत्या
आम तौर पर जनवरी-फरवरी के महीने में दसवीं की परीक्षा का भूत विद्यार्थियों के साथ ही अभिभावकों पर भी सवार हो जाता है। घर में पूरी तरह से तनाव का माहौल बन जाता है।
देश में शिक्षा और उसके स्तर में सुधार के बारे में बहस तो कई बार हो चुकी है लेकिन कोई सार्थक ठोस कदम नहीं उठाया गया। उच्च शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जाता है लेकिन सबसे ज्यादा सुधार की आवश्यकता स्कूली शिक्षा प्रणाली में है, जिस पर बच्चों का भविष्य पूरी तरह निर्भर करता है। इस दृष्टि से प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में गठित समिति ने जो रिपोर्ट दी है, उसमें दसवीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त कर मूल्यांकन की वैकल्पिक व्यवस्था की बात की गई है। यह निश्चय ही एक ऐतिहासिक कदम होगा और छात्र-छात्राओं को बोर्ड के हौव्वे से बचाने का काम करेगा। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। आम तौर पर जनवरी-फरवरी के महीने में दसवीं की परीक्षा का भूत विद्यार्थियों के साथ उनके माता-पिता पर भी सवार हो जाता है। घर में पूरी तरह से तनाव का माहौल बन जाता है। इसका सबसे प्रमुख कारण है कि आजकल परीक्षा में प्राप्तांकों का महत्व बहुत बढ़ गया है। उसी के आधार पर विद्यार्थी की आगे पढ़ाई के बारे में तय होता। नई व्यवस्था से परीक्षा के दौरान तनाव और बाद में कम अंक आने पर विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या जसी प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। रिपोर्ट के अनुसार ज्ञान अर्जन पीड़ादायक न हो, इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए। बोर्ड की परीक्षा समाप्त करना इस दिशा में पहला कदम होगा। सरकार अब इस बारे में राज्य सरकारों, परीक्षा बोर्डो और विद्यार्थियों के माता-पिता से सलाह लेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार के सौ दिन के एजेंडे में इसे मूर्तरूप दिया जा सकेगा। यशपाल समिति ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद को समाप्त कर राष्ट्रीय उच्च शिक्षा और शोध आयोग बनाने का सुझाव दिया है। यह तो बहस का विषय है, जो लंबा खिंच सकता है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आजादी के 62 वर्ष हो रहे हैं और अभी शिक्षा की वही व्यवस्था लागू है जो लार्ड मैकाले ने 1835 में शुरू की थी। हम लगभग पौने दो सौ साल से अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली में उलङो हुए हैं। कहने के लिए हमारी अपनी व्यवस्था नहीं है। अब एक महत्वपूर्ण सुझाव सामने आया है तो इसके क्रियान्वयन के लिए तुरंत प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए, क्योंकि ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।
Tuesday, June 16, 2009
यूपीए सरकार की भाषाई अक्षमता
मुंबई हमले के बाद सरकार के गरम तेवर अब नरम पड़ चुके हैं। जमात उद दावा हाफिज मोहम्मद सईद की रिहाई के बाद मनमोहन सिंह का लोकसभा में यह कहना कि हमारे पास बातचीत के अलावा विकल्प नहीं है, इस ओर इशारा भी करते हैं। चुनाव जीतने के बाद सरकार द्वारा मुंबई हमले पर अपनाया गया लचर रवैया बताता है कि ‘तेवरों में वह गर्मी चुनावों तक के लिए ही थी। बहरहाल सरकार को यह सोचना होगा कि रिहाई के बाद हाफिज सईद मस्जिद में नमाज तो नहीं पड़ेगा। अब भारत एक और मुंबई हमला ङोलने के लिए तैयार रहे।
महेंद्र सिंह
आम चुनाव में अप्रत्याशित रूप से मजबूत जनादेश पाकर आत्ममुग्ध हो चुकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार आने वाले पांच सालों में देश को कैसी सरकार देने जा रही है। इस पर लोग अपने अपने-अपने तरीके से विचार प्रकट कर रहे हैं। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर यूपीए सरकार अपनी भाषाई अक्षमता स्पष्ट कर चुकी है। हाल में पाकिस्तान की अदालत ने मुंबई हमले के सूत्रधार हाफिज सईद को यह कहते हुए रिहा कर दिया कि सरकार आरोपी के खिलाफ कोई ऐसा सबूत या दस्तावेज पेश करने में विफल रही है जिससे मुंबई हमले में उसकी संलिप्तता का पता चलता हो। खर भारतीय सरजमीं पर आतंक का नंगा नाच प्रायोजित करने वाले मसूद अजहर और हाफिज सईद के खिलाफ पाकिस्तान सरकार के सख्त रुख अख्तियार करने की उम्मीद मनमोहन सिंह और कुछ कथित बुद्धिजीवी स्तंभकार ही कर सकते हैं जो चौबीसों घंटे पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करते रहते हैं। दिलचस्प है कि हाफिज सईद की गिरफ्तारी के बाद भारत सरकार की प्रतिक्रया सिर्फ ‘दुर्भाग्यपूर्णज् पर सीमित होकर रह गई। गरिमा के मानस अवतार शालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उस रात को नींद आई कि नहीं आई। ये तो वही जानें। लेकिन मुंबई हमले में अपने परिजनों को खोने वाले भारतीय, शहीद पुलिस अधिकारियों, सुरक्षा बलों की विधवाओं और बच्चों के साथ हर उस भारतीय को बैचैनी जरूर हुई होगी जिसने 72 घंटे तक मुंबई के जनजीवन को थमते देखा और महसूस किया। सरकार भी वही है। प्रधानमंत्री भी मनमोहन सिंह हैं। फिर अचानक भारतीय नेतृत्व के तेवर इतने नरम क्यों हो गए। ऐसा लगा कि भारत से बहुत दूर कहीं कोई घटना घट गई हो और भारत सरकार को राजनयिक शिष्टाचार के नाते कोई प्रतिक्रया देनी थी। हमारे विदेश मंत्री ने यह कहकर रस्म अदायगी कर दी कि हाफिज सईद की रिहाई दुर्भाग्यपूर्ण है। सही है। हम इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है। वैसे भी पाकिस्तान आजकल स्वात और वजीरिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिका के पैसे से लड़ाई लड़ रहा है। हमें शिकायत पाकिस्तान से नहीं है। हमें भारत सरकार से भी शिकायत नहीं होती अगर उसने चीख चीख कर मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को हर हाल में न्याय के कटघरे में खड़ा करने की बात न की होती। मनमोहन सिंह जी ने इसके बाद संसद में एक और धमाका कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारे पास पाकिस्तान से बाचचीत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। आम भारतीय को यह बात समझ में नहीं आई कि मुंबई हमले से लेकर आम चुनाव के दौरान मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के लिए इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई। क्या यह महज संयोग है कि प्रधानमंत्री संसद में पाकिस्तान के साथ बातचीत का संकेत देते हैं और दो चार दिन बाद ही ओबामा के दूत बिलियम बर्न्स भारत आकर मनमोहन सिंह को ओबामा के नाम की पाती देते हैं। लगे हाथ बर्न्स यह भी कह देते हैं कि कश्मीर के मामले में वहां के लोगों की बात सुनी जानी चाहिए। अब बर्न्स को कौन बताए कि कश्मीर में अभी कुछ माह पहले अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में विधानसभा चुनाव हुए हैं और जनता ने अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भारतीय लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की है। हां अगर बर्न्स आईएसआई के पैसे पर पेट पालने वाले हुर्रियत के नेताओं को ही कश्मीरियों की आकांक्षाओं का प्रतीक मानती है तो ये उनकी समस्या है। एक और दिलचस्प बात है कि जब भी कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं की बात होती है तो अमेरिका, ब्रिटेन और भारतीय नेतृत्व को भी पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर की याद नहीं आती जहां के लोग यह भी नहीं जानते कि लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है। इसके लिए हमारे देश का धर्मनिरपेक्ष मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना भारतीय नेतृत्व। हमारे देश के पत्रकार किसी बर्न्स या मिलीबैंड से क्यों नहीं पूंछते कि कश्मीरी अवाम की आकांक्षा क्या भारतीय कश्मीर तक ही सीमित है। सवाल तो अरुंधती राय से भी पूछा जा सकता है कि कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन को लेकर सेना पर आरोप लगाने से पहले उन्हें मुजफ्फराबाद में पिछले सात दशकों से लोकतंत्र के साथ हो रहा बलात्कार क्यों नहीं दिखता। क्या हम मान लें कि विलियम बर्न्स ओबामा के उस प्लान को आगे बढ़ाने के लिए आए थे जो उन्होंने कश्मीर विवाद को हल करने के लिए अमेरिकी मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत किया था। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि बर्न्स के बाद अगले महीने जुलाई में अमेरिकी की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आ रहीं हैं। कश्मीर जसे पुराने अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत ही एक मात्र विकल्प है इससे शायद ही कोई इनकार करे लेकिन बातचीत की मेज पर जाने के पहले बातचीत का माहौल तो बने। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को अपने हनीमून पीरियड में सब कुछ अच्छा लग रहा होगा लेकिन ऐसा हर भारतीय के साथ नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व को यह बात समझ लेनी चाहिए कि खुली हवा में सांस ले रहा हाफिज सईद मस्जिद में जाकर इबादत नहीं कर रहा होगा बल्कि वह भारत में एक और आतंकी मंजर की पटकथा लिखने में जी जान से जुट गया हो गया क्योंकि उसकी दुकान इसी से चलती है। मनमोहन जी मुंबई हमले के बाद उभरे आम जनता के आक्रोश को याद करिए और हनीमून सिंड्रोम से जल्दी निकलिए।
महेंद्र सिंह
आम चुनाव में अप्रत्याशित रूप से मजबूत जनादेश पाकर आत्ममुग्ध हो चुकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार आने वाले पांच सालों में देश को कैसी सरकार देने जा रही है। इस पर लोग अपने अपने-अपने तरीके से विचार प्रकट कर रहे हैं। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर यूपीए सरकार अपनी भाषाई अक्षमता स्पष्ट कर चुकी है। हाल में पाकिस्तान की अदालत ने मुंबई हमले के सूत्रधार हाफिज सईद को यह कहते हुए रिहा कर दिया कि सरकार आरोपी के खिलाफ कोई ऐसा सबूत या दस्तावेज पेश करने में विफल रही है जिससे मुंबई हमले में उसकी संलिप्तता का पता चलता हो। खर भारतीय सरजमीं पर आतंक का नंगा नाच प्रायोजित करने वाले मसूद अजहर और हाफिज सईद के खिलाफ पाकिस्तान सरकार के सख्त रुख अख्तियार करने की उम्मीद मनमोहन सिंह और कुछ कथित बुद्धिजीवी स्तंभकार ही कर सकते हैं जो चौबीसों घंटे पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करते रहते हैं। दिलचस्प है कि हाफिज सईद की गिरफ्तारी के बाद भारत सरकार की प्रतिक्रया सिर्फ ‘दुर्भाग्यपूर्णज् पर सीमित होकर रह गई। गरिमा के मानस अवतार शालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उस रात को नींद आई कि नहीं आई। ये तो वही जानें। लेकिन मुंबई हमले में अपने परिजनों को खोने वाले भारतीय, शहीद पुलिस अधिकारियों, सुरक्षा बलों की विधवाओं और बच्चों के साथ हर उस भारतीय को बैचैनी जरूर हुई होगी जिसने 72 घंटे तक मुंबई के जनजीवन को थमते देखा और महसूस किया। सरकार भी वही है। प्रधानमंत्री भी मनमोहन सिंह हैं। फिर अचानक भारतीय नेतृत्व के तेवर इतने नरम क्यों हो गए। ऐसा लगा कि भारत से बहुत दूर कहीं कोई घटना घट गई हो और भारत सरकार को राजनयिक शिष्टाचार के नाते कोई प्रतिक्रया देनी थी। हमारे विदेश मंत्री ने यह कहकर रस्म अदायगी कर दी कि हाफिज सईद की रिहाई दुर्भाग्यपूर्ण है। सही है। हम इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है। वैसे भी पाकिस्तान आजकल स्वात और वजीरिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिका के पैसे से लड़ाई लड़ रहा है। हमें शिकायत पाकिस्तान से नहीं है। हमें भारत सरकार से भी शिकायत नहीं होती अगर उसने चीख चीख कर मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को हर हाल में न्याय के कटघरे में खड़ा करने की बात न की होती। मनमोहन सिंह जी ने इसके बाद संसद में एक और धमाका कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारे पास पाकिस्तान से बाचचीत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। आम भारतीय को यह बात समझ में नहीं आई कि मुंबई हमले से लेकर आम चुनाव के दौरान मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के लिए इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई। क्या यह महज संयोग है कि प्रधानमंत्री संसद में पाकिस्तान के साथ बातचीत का संकेत देते हैं और दो चार दिन बाद ही ओबामा के दूत बिलियम बर्न्स भारत आकर मनमोहन सिंह को ओबामा के नाम की पाती देते हैं। लगे हाथ बर्न्स यह भी कह देते हैं कि कश्मीर के मामले में वहां के लोगों की बात सुनी जानी चाहिए। अब बर्न्स को कौन बताए कि कश्मीर में अभी कुछ माह पहले अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में विधानसभा चुनाव हुए हैं और जनता ने अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भारतीय लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की है। हां अगर बर्न्स आईएसआई के पैसे पर पेट पालने वाले हुर्रियत के नेताओं को ही कश्मीरियों की आकांक्षाओं का प्रतीक मानती है तो ये उनकी समस्या है। एक और दिलचस्प बात है कि जब भी कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं की बात होती है तो अमेरिका, ब्रिटेन और भारतीय नेतृत्व को भी पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर की याद नहीं आती जहां के लोग यह भी नहीं जानते कि लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है। इसके लिए हमारे देश का धर्मनिरपेक्ष मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना भारतीय नेतृत्व। हमारे देश के पत्रकार किसी बर्न्स या मिलीबैंड से क्यों नहीं पूंछते कि कश्मीरी अवाम की आकांक्षा क्या भारतीय कश्मीर तक ही सीमित है। सवाल तो अरुंधती राय से भी पूछा जा सकता है कि कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन को लेकर सेना पर आरोप लगाने से पहले उन्हें मुजफ्फराबाद में पिछले सात दशकों से लोकतंत्र के साथ हो रहा बलात्कार क्यों नहीं दिखता। क्या हम मान लें कि विलियम बर्न्स ओबामा के उस प्लान को आगे बढ़ाने के लिए आए थे जो उन्होंने कश्मीर विवाद को हल करने के लिए अमेरिकी मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत किया था। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि बर्न्स के बाद अगले महीने जुलाई में अमेरिकी की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आ रहीं हैं। कश्मीर जसे पुराने अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत ही एक मात्र विकल्प है इससे शायद ही कोई इनकार करे लेकिन बातचीत की मेज पर जाने के पहले बातचीत का माहौल तो बने। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को अपने हनीमून पीरियड में सब कुछ अच्छा लग रहा होगा लेकिन ऐसा हर भारतीय के साथ नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व को यह बात समझ लेनी चाहिए कि खुली हवा में सांस ले रहा हाफिज सईद मस्जिद में जाकर इबादत नहीं कर रहा होगा बल्कि वह भारत में एक और आतंकी मंजर की पटकथा लिखने में जी जान से जुट गया हो गया क्योंकि उसकी दुकान इसी से चलती है। मनमोहन जी मुंबई हमले के बाद उभरे आम जनता के आक्रोश को याद करिए और हनीमून सिंड्रोम से जल्दी निकलिए।
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