Sunday, May 31, 2009

एक संस्कृतिविहीन सरकार का सच

साहित्य संगीत कलाविहीन: साक्षात पशु पुच्छ विशाणहीन:

मंत्री पद के लिए घटक दलों की राजनीतिक खींचतान और कांग्रेस पार्टी के अंदर संतुलन बनाए रखने के प्रयास में मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले दो दशक से काम कर रहे एक महत्वपूर्ण मंत्रालय की बलि दे दी, जिसकी वजह से अब देश में सरकारी स्तर पर संस्कृति और कला का कोई पुरसाहाल नहीं है।

राष्ट्रपति भवन से जारी मंत्रियों और उनके विभागों की आधिकारिक विस्तृत सूची में संस्कृति मंत्रालय का उल्लेख नहीं है, जबकि पिछली सरकार में इसे कैबिनेट स्तर का मंत्रालय माना गया था और अंबिका सोनी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई थी। संस्कृति मंत्रालय के तहत पचास से अधिक संगठन काम करते हैं, जिनमें देश के सभी प्रमुख पुस्तकालय, गांधी स्मृति, नेहरू स्मारक, सालारजंग, रजा और खुदाबख्श लाइब्रेरी, राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राष्ट्रीय संग्रहालय और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय शामिल हैं।

मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में कुल 79 सदस्य हैं, पर इस मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी किसी को नहीं सौंपा गया है। संस्कृति विभाग 1986 तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत था, पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संस्कृति पर विशेष जोर देने के लिए इसे अलग मंत्रालय बनाया। उस समय पीवी नरसिंह राव मानव संसाधन विकास मंत्री थे और संस्कृति विभाग अलग होने के बाद भास्कर घोष पहले संस्कृति सचिव बने। इसी मंत्रालय ने दुनिया के कई देशों में भारत उत्सव का आयोजन किया। इसी के तहत सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक कें्र बनाए गए ताकि देश में सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया जा सके।

कला और संस्कृति के हर स्वरूप और विधा प्रोत्साहित और प्रचारित करने की जिम्मेदारी संस्कृति मंत्रालय की है। इसके अंतर्गत एशियाटिक सोसायटी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, ललित कला अकादमी और इंदिरा गांधी कला कें्र भी आते हैं, जो स्वायत्तशासी संगठन हैं। मंत्रालय से जुड़े एक अधिकारी ने कहा कि एक दिन पहले तक अंबिका सोनी उनकी मंत्री थीं, पर अब उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है कि इसका काम कौन देखेगा।

यह पूछे जाने पर कि क्या यह राजनीतिक जोड़-तोड़ के बीच हुई चूक है, प्रधानमंत्री की सूचना सलाहकार दीपक संधू ने कहा कि मंत्रिपरिषद का गठन काफी सोच विचार के बाद किया जाता है, इसलिए ऐसी चूक नहीं हो सकती कि किसी मंत्रालय का नाम छूट जाए। उन्होंने कहा कि जो भी मंत्रालय या विभाग किसी को आवंटित नहीं है, उसे प्रधानमंत्री के अधीन माना जाता है।

आज समाज से सभार

Friday, May 29, 2009

संघ की गुलामी का भविष्य

भारतीय जनता पार्टी इन आम चुनावों में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी है। हालांकि उसने सत्ता वापस पाने के लिए भरपूर प्रयास किए लेकिन वह इसमें कामयाब नहीं हो पाई। इसके कई कारण बताए जा रहे हैं लेकिन एक कारण जो सभी मान रहे हैं वह है कि जनता अब एक स्थिर और काम करने वाली सरकार चाहती थी। तो क्या यह समझा जाए कि मतदाता भाजपा को इस लायक नहीं समझते हैं कि वह देश को एक स्थिर सरकार दे सकती है
भाजपा ने ही देश भर में कांग्रेस के प्रभुत्व को खत्म करने में सफलता पाई थी और आज भी वही एक दल है जो कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने में सक्षम है। लेकिन अब जब चुनावों की खुमारी उतरने लगी है तो इस बात पर संदेह होने लगा है कि क्या इस पार्टी का वही दमखम बना रहेगा। यह शक होने के कई कारण हैं। इस पार्टी के जो दो सबसे दिग्गज नेता थे- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी-उनमें से वाजपेयी इस चुनाव से पहले ही सक्रिय राजनीति से अलग हो गए और अब आडवाणी भी सक्रिय राजनीति से अलग होना चाहते हैं। वैसे भी जब पांच साल बाद चुनाव होंगे तो आडवाणी की उम्र को देखते हुए उनसे इसी सक्रियता से काम करने की अपेक्षा करना सही नहीं होगा।
अभी तक आडवाणी ही थे जो पार्टी के आधार को व्यापक बनाने, संगठन को मजबूत करने और पार्टी में एकता बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाते रहे। अब पार्टी एक तरह से दोराहे पर खड़ी है। उसे अपना रास्ता एकबारगी तय करना है कि वह क्या चाहती है। क्या वह फिर से राम मंदिर जसे भावनात्मक मुद्दों को उठाने वाली पुरानी पार्टी बन जाए या फिर मुख्यधारा में शामिल हो विकास की बात करने वाली पार्टी बने। इस मामले में ध्यान देने वाली बात यह है कि अब वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के काम में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। एक वही नेता थे जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता था।
संघ ने जिन्ना के मुद्दे को लेकर किस तरह आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए बाध्य किया, वह किसी से छिपा नहीं है। इससे इन अंदेशों को बल मिलता है कि अब पार्टी के मामले में संघ का हस्तक्षेप बढ़ता ही जाएगा। संघ के साथ ही विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जसे संगठन भी अब अपना खेल दूसरी तरह से खेलना शुरू करेंगे। अभी तक भाजपा उनकी हर बात का समर्थन नहीं करती थी जिससे परिषद और भाजपा के बीच कई बार तनातनी की स्थिति भी बन गई। आडवाणी की पार्टी मामलों में जब सक्रियता कम होने लगेगी तो क्या होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
अब कोई ऐसा नेता नजर नहीं आता जो संघ को अपनी जगह पर रखने के लिए उससे बात कर सके। इस परिदृश्य में मुरली मनोहर जोशी ही बचते हैं जो संघ से बात कर सकते हैं लेकिन उनकी स्वीकार्यता पार्टी में नजर नहीं आती। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, अरुण जेटली तथा सुषमा स्वराज सरीखे दूसरी पीढ़ी के नेताओं के पास संघ की बात सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रदेश में संघ से टकराव ले चुके हैं लेकिन अल्पसंख्यक विरोधी उनकी छवि राष्ट्रीय नेता बनने के उनके सपने में आड़े आएगी। दूसरी बात उनके राष्ट्रीय परिदृश्य में सक्रिय होने से राजग का बिखराव निश्चित हो जाएगा। जनता दल-यू ने तो मोदी को चुनावों में बिहार नहीं आने दिया और चुनाव परिणामों के बाद तो और तल्ख अंदाज में यह भी कहा कि मोदी और वरुण गांधी के कारण ही राजग को हार का सामना करना पड़ा।
यदि भाजपा ने विकास के रास्ते को नहीं चुना तो राजग को बांधे रहना मुश्किल हो जाएगा। उड़ीसा में बीजू जनता दल ने जिस तरह से भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद उसका राज्य से सफाया कर दिया, वह बिहार में नीतीश कुमार भी कर सकते हैं। राजग का एक अन्य घटक अकाली दल भी साफ-साफ कह चुका है कि भाजपा सांप्रदायिक हो चुकी है इसलिए हमें हार का सामना करना पड़ा। इसी राजग के दम पर भाजपा ने कांग्रेस को किनारे कर दिया था और अब यही राजग भाजपा को किनारे लगा सकता है। भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि अब घृणा की राजनीति के दिन लद गए हैं। किसी एक वर्ग, धर्म या जाति के लोगों को लेकर अब राजनीति नहीं की जा सकती। दूसरे उसे साफ छवि के युवा नेताओं को आगे कर पार्टी को एक नई छवि देनी चाहिए। उसके पास इस समय एक भी ऐसा नेता नहीं है जो कांग्रेस के राहुल गांधी की तोड़ रखता हो। हालांकि भाजपा के पास भी एक गांधी है लेकिन उसने राजनीति की पारी जिस अंदाज से शुरू की है उससे उसकी उछाल सीमित हो गई है।
-राजीव पांडे
(29 मई 09 को आज समाज में प्रकाशित)

Wednesday, May 27, 2009

एक आंधी आएगी, दीदी राइटर जाएगी

लोकसभा चुना की उपलब्धियों का जिक्र करें और ममता की बात न हो ऐसा नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह की सरकार कैसे बनी और भाजपा कैसे हारी यह भले ही उन दोनों दलों के नेताओं और रणनीतिकारों की समझ में न आ रहा हो, लेकिन ममता से करिश्मे की उम्मीद सभी को थी। लोगों को या कहें कि पश्चिम बंगाल की जनता औरोम दलों को भी दीदी की आंधी का अंदाजा नहीं था।ोम दल लगातार कह रहे थे कि ह कें्र में गैर कांग्रेस गैर भाजपा सरकार बनाएंगे। इससे अलग दीदी ने बंगाल की फिजा में एक नया नारा दिया। ठीक उस तरह जसे आजादी के आंदोलन में क्रांतिकारियों और देशभक्तों ने दिया था।

ममता ने लोगों के सामनेोम दलों के 35 साल के शासन के सामने मां, माटी और मानुस का नारा दिया। इसका जनता में इतना असर हुआ कि ‘दो फूलज् एक से बढ़कर 19 सीट पर पहुंच गई। इसे ममता का ही करिश्मा कहेंगे, कि जब पूरे देश ने क्षेत्रीय दलों को जनता ने सिरे से नकाराना शुरू किया, उस समय तृणमूल कांग्रेस अपने शबाब पर है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, केरल जसे प्रदेशों में जनता ने क्षेत्रीय दलों को सिरे से नकार दिया। बिहार के परिणाम तो अप्रत्याशित हैं। रामलिास और लालू के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई। हालांकि नीतीश कुमार और नीन पटनायक की पार्टी ने जीत दर्ज की। बिहार में लंबे समय से व्याप्त अराजकता को कम करने और उड़ीसा की जनता में आत्मशिस पैदा करने के कारण जीत हुई।

ममता की जीत को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। ममता ने लोगों में नई उम्मीद, नया जोश, नए जज्बात पैदा किया। उसने लोगों में आश जगाई किोम गढ़ में भी लाल झंडे को उखाड़ा जा सकता है। एक समय ऐसा था जबोम दलों के लिए झंडे बनानेोले लोग दूसरे दलों के झंडे तक नहीं बनाया करते थे।ोल पेंटिंग और पोस्टरों को लोग उखाड़ देते थे। दीदी ने उन लोगों में एक नया जोश भरा। उनको सपनों में लाल गढ़ से बाहर की दुनिया को दिखाई है। उम्मीद का दामन थामकर एक ऐसे आसमान में उड़ने के लिए प्रेरित किया जो पिछले 35 साल में कोई नहीं कर पाया था। यह काम केल ममता ही कर सकतीं थीं। क्योंकि ऐसा करने का माद्दा सिर्फ और सिर्फ उनमें ही है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि लोगों में उम्मीद और नए अरमान भरने के बाद दीदी की नजर राइटर बिल्डिंग पर टिक गई है। दीदी को उम्मीद है कि जनता अब प्रदेश के किास के लिए ‘लाल‘ नहीं ‘नीलेज् झंडे का साथ देगी।

ऐसा नहीं है कि राइटर बिल्डिंग पर नीला झंडा लगाना ममता के लिए काफी आसान होगा। पश्चिम बंगाल में धिानसभा चुना होने में अभी दो साल का समय है। हार के बादोम दलों में जिस प्रकार आत्ममंथन का दौर शुरू हुआ है, ैसा न तो भाजपा में देखने को मिला न ही किसी और दल में।ोम दलों ने स्ीकार किया कि उनके प्रचार का तरीका गलत था। ऐसे में इस बात का अंदाजा लगा पाना कितना सहज है किोम अपने गढ़ को खोने के बाद नई रणनीति बनाने और ममता की आंधी को रोकने के लिए े सारे प्रयास करेंगे। ममता के सामने भी चुनौतियां कम नहीं है। कें्र में दो साल मंत्री रहने के बाद उनको और उनके सांसदों को कम से कम इतना तो करना ही होगा कि जनता को लगे, कि ममता को जिताने का उनका निर्णय सही है। इसके लिए ममता को सेज और निेश जसे मामलों में कांग्रेस से दो चार होना पड़ सकता है।

ममता लगातार सेज और निेश का रिोध करतीं रहीं हैं, जबकि कांग्रेस उसकी पक्षधर रही है। ऐसे में ममता अगर कांग्रेस के साथ खड़ी नजर आतीं हैं तो मामला एकदम उलट हो सकता है।ोम दल भी इसी फिराक में बैठे हैं। दूसरी बात ममता अगर बुद्धदे के किास के माडल को गलत बतातीं हैं और जनता उनको उस रिोध के कारण पसंद करती है तो उनको प्रदेश के किास के लिएोम दलों से अलग एक माडल देना होगा। ममता का यह माडलोम दलों से अलग होगा तो जनता उनके साथ होगी। इसके लिए उनको प्रदेश में औद्योगीकरण करना होगा, लेकिन उन्होंने टाटा को प्रदेश से बाहर करने के लिए लंबा चौड़ा आंदोलन किया। ऐसे में जब वह फिर से औद्योगीकरण की बात करेंगी तो वाम दल उनको घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। अगर ममता विकास नहीं कर पातीं हैं तो इस बार जनता के सामने किन मुद्दों पर जाएंगी, क्योंकि लोकसभा तो सिंगुर और नंदीग्राम पर जीत लिया, लेकिन अब जब जनता यह कह रही है कि ‘एक आंधी आएगी, दीदी राइटर जाएगीज् उस समय राइटर बिल्डिंग पर कब्जा दीदी के लिए आसान नहीं होगा।
मृगेंद्र पांडेय

Friday, May 15, 2009

अखबार वाले हो, कोई खुदा नहीं


भारत के एक प्रमुख मीडिया समूह ने इन दिनों सुभिक्षा रिटेल समूह के खिलाफ अभियान चला रखा है। अगर यह कहें तो बेहतर होगा कि वह सुभिक्षा को पूरी तरह बर्बाद करने पर आमादा है। इसका एक कारण यह भी है कि इस मीडिया समूह की सुभिक्षा के प्रतिद्वंद्वी समूह में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। यह व्यावसायिक हितों के लिए मीडिया के उपयोग का छोटा सा उदाहरण है। मंदी के दौर में इस तरह का अभियान काफी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि सुभिक्षा के साथ हजारों कर्मचारियों का भविष्य जुड़ा हुआ है।
हो सकता है कि ‘सुभिक्षा को नकदी का संकटज् जसी इन खबरों के पीछ सच्चाई भी हो। लेकिन ऐसी खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने को मीडिया समूह के व्यावसायिक हितों से जोड़कर ही देखा जाएगा। वैसे भी सुभिक्षा के खिलाफ मीडिया समूह द्वारा एक-डेढ़ साल से चल रहे इस अभियान का और क्या उद्देश्य हो सकता है?
चुनाव के दौरान भी बड़े समाचार पत्र समूहों द्वारा राजनीतिक दलों/प्रत्याशियों से अवैध धन उगाही (या विज्ञापन के नाम जबरन पैसे मांगना) जसी काफी चर्चाएं थीं। एेसी बातों की जमकर अलोचना भी हुई थी। इसे पत्रकारिता माफिया के भ्रष्टाचार की संज्ञा से भी नवाजा गया। व्यावसायिक हितों के लिए मीडिया का इस्तेमाल और खबर छापने या नहीं छापने के लिए मुंह खोलकर पैसा मांगने में कोई अंतर नहीं है।
मीडिया समूह को सोचना चाहिए कि वह खुदा नहीं है। वह किसी उद्योग को प्रभावित तो कर सकते हैं, लेकिन चौपट नहीं। किसी के खिलाफ लगातार लिखने से जनता को भी एहसास होता है कि क्ष्रु निजी स्वार्थो से प्रेरित होकर ही इस तरह की खबरें प्रकाशित की जा रही हैं। मीडिया की विश्वसनीयता पहले से ही संकट में है। इस तरह की खबरों से जनता को अधिक दिनों तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। न ही मीडिया जगत का भला हो सकता है।

Wednesday, May 6, 2009

कांग्रेस की ऐतिहासिक बेशर्मी

शायद कांग्रेस की इस बदहाली पर मैं कुछ देर से गौर कर रहा हूं, लेकिन यह सही है कि सत्ता के लालच में 15वीं लोकसभा के इस चुनाव में कांग्रेस ऐतिहासिक बेशर्मी पर उतर आई है। वैसे अब तक धर्म निरपेक्ष दलों की अगुवा यह पार्टी भाजपा और अन्य कुछ हिंदूवादी दलों (शिवसेना आदि) को छोड़कर अप्रत्यक्ष रूप से हर दरवाजे पर अपना सिर पटक चुकी है। इतना ही नहीं कांग्रेस द्वारा भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के साझीदार नीतीश कुमार को अच्छा नेता करार दिया जा चुका है। नीतीश की प्रशंसा करते समय कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अपने पुराने दोस्त लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान की दोस्ती तक को ताक पर रख दिया। इसके साथ जयाललिता से दोस्ती करने को बेकरार कांग्रेस करुणानिधि को ठेंगा दिखाने को तैयार नजर आ रही है। परमाणु करार को लेकर कांग्रेस ने वाम दलों की ठोकर खाई थी, लेकिन सत्ता को लेकर कांग्रेस फिर से उनके तलुए चाटने को तैयार है। लेकिन वाम दल हैं कि मानते ही नहीं।
बहरहाल, कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के बाद होने वाली दुर्दशा का अंदाजा हो गया है। लेकिन सत्तालोलुपता ने उसे इस कदर बेशर्म बना दिया है कि जिन्हें वो कल तक फूटी आंख नहीं सुहाते थे आज उन्हें गले लगाने को भी तैयार है।
1950 से अब तक की कांग्रेस पर गौर करें तो पाते हैं कि इस पार्टी की इतनी बुरी गत अभी तक नहीं हुई। क्षेत्रीय दलों के सहारे के बिना कांग्रेस एक कदम भी चलने में सक्षम नजर नहीं आ रही है। चुनाव से पहले मुलायम, लालू और पासवान ने उन्हें ठोकर मारी थी। तो अब वाम दल उनकी ओर मुंह करने को तैयार नहीं है।