सभी दलों के समर्थन के बावजूद विधेयक न पारित होना हैरानी में डालता है।
महिला आरक्षण विधेयक पिछले 13 वर्षो से अधर में लटका हुआ है और इसके लिए जिम्मेदार है राजनीतिक दलों में इच्छा शक्ति की कमी। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों का समर्थन होने के बावजूद विधेयक पारित न हो पाना क्या दर्शाता है? यही कि ऊपर से नहीं, लेकिन भीतर ही भीतर हर दल में आरक्षण विरोधी लोग हैं, जो किसी न किसी बहाने विधेयक की राह में रोड़े बना रहे हैं। इसके लिए समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जेडीयू सरीखी पार्टियों को ही क्यों दोष दिया जाए। ये पार्टियां अगर विरोध कर रही हैं तो इनके अपने-अपने तर्क हैं और कम से कम ये खुलेआम विरोध में हैं। लेकिन खामोश रह कर जो विरोध कर रहे हैं उनका क्या इलाज हो सकता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने जब से घोषणा की है कि उसके सौ दिन के एजेंडे में महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाना भी है, तब से यह मामला फिर गरमा गया है। एक नेता ने तो इस पर पहले यह कहा कि अगर वर्तमान स्वरूप में विधेयक पारित हो गया तो वह जहर खा लेंगे लेकिन बाद में पलट गए और कहने लगे कि वे तो चाहते हैं कि महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए। अगर वे आरक्षण के इतने हिमायती हैं तो 33 प्रतिशत पर ही क्यों नहीं राजी हो जाते। समाज के कमजोर वर्गो का हिमायती बनने वाली समाजवादी पार्टी को भी विधेयक का वर्तमान स्वरूप स्वीकार्य नहीं है। इसी का फायदा उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि वह विधेयक का समर्थन करती है, लेकिन छोटी-छोटी पार्टियों की बात भी सुनी जानी चाहिए। यह एक तरह से मामले को टालने का तरीका है। सबसे हैरानी की बात यह है कि कोई भी दल विधेयक के विरोध में नहीं है, लेकिन जब विधेयक पारित करने की बात आती है तो उसके विरोध में लोग खड़े हो जाते हैं। राष्ट्रहित में यह अच्छा ही होगा कि विधेयक आम राय से पारित हो लेकिन इस पर सहमति बनने की उम्मीद नहीं लग रही है, क्योंकि सभी के संशोधनों को विधेयक में समाहित करना संभव नहीं। राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी है कि वे केवल महिलाओं का हितैषी होने का दिखावा न करें, बल्कि उनके हित के लिए इस विधेयक को पारित कराने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाएं।
(आज समाज से साभार)