Friday, May 15, 2009

अखबार वाले हो, कोई खुदा नहीं


भारत के एक प्रमुख मीडिया समूह ने इन दिनों सुभिक्षा रिटेल समूह के खिलाफ अभियान चला रखा है। अगर यह कहें तो बेहतर होगा कि वह सुभिक्षा को पूरी तरह बर्बाद करने पर आमादा है। इसका एक कारण यह भी है कि इस मीडिया समूह की सुभिक्षा के प्रतिद्वंद्वी समूह में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। यह व्यावसायिक हितों के लिए मीडिया के उपयोग का छोटा सा उदाहरण है। मंदी के दौर में इस तरह का अभियान काफी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि सुभिक्षा के साथ हजारों कर्मचारियों का भविष्य जुड़ा हुआ है।
हो सकता है कि ‘सुभिक्षा को नकदी का संकटज् जसी इन खबरों के पीछ सच्चाई भी हो। लेकिन ऐसी खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने को मीडिया समूह के व्यावसायिक हितों से जोड़कर ही देखा जाएगा। वैसे भी सुभिक्षा के खिलाफ मीडिया समूह द्वारा एक-डेढ़ साल से चल रहे इस अभियान का और क्या उद्देश्य हो सकता है?
चुनाव के दौरान भी बड़े समाचार पत्र समूहों द्वारा राजनीतिक दलों/प्रत्याशियों से अवैध धन उगाही (या विज्ञापन के नाम जबरन पैसे मांगना) जसी काफी चर्चाएं थीं। एेसी बातों की जमकर अलोचना भी हुई थी। इसे पत्रकारिता माफिया के भ्रष्टाचार की संज्ञा से भी नवाजा गया। व्यावसायिक हितों के लिए मीडिया का इस्तेमाल और खबर छापने या नहीं छापने के लिए मुंह खोलकर पैसा मांगने में कोई अंतर नहीं है।
मीडिया समूह को सोचना चाहिए कि वह खुदा नहीं है। वह किसी उद्योग को प्रभावित तो कर सकते हैं, लेकिन चौपट नहीं। किसी के खिलाफ लगातार लिखने से जनता को भी एहसास होता है कि क्ष्रु निजी स्वार्थो से प्रेरित होकर ही इस तरह की खबरें प्रकाशित की जा रही हैं। मीडिया की विश्वसनीयता पहले से ही संकट में है। इस तरह की खबरों से जनता को अधिक दिनों तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। न ही मीडिया जगत का भला हो सकता है।