Friday, July 10, 2009

एक जाम में बिक जाते हैं जाने कितने खबरनवीस

मेरे एक मित्र शाम के समय एक शेर अक्सर बोला करते थे,

एक जाम में बिक जाते हैं जाने कितने खबरनवीस,
सच को कौन कफन पहनाता, गर ये अखबार न होते तो


ये शेर सुनाकर वह मुझ जसे छोटे से पत्रकार को अंदर तक झकझोर दिया करते थे। काफी हद तक उनका यह शेर पत्रकारिता के वर्तमान दौर पर सही प्रतीत होता है। यह जाम पत्रकार के स्तर के हिसाब से सिर्फ चाय पर सिमट जाता है तो इसका दायरा नोटों की थैली तक भी फैल जाता है। हर जाम के पीछे कोई न कोई कहानी छिपी होती है। किसी पत्रकार की वरिष्ठों को खुश करने की मजबूरी हो या फिर कंपनी की जरूरत। इसके पीछे पत्रकारों की आर्थिक मजबूरियां भी छिपी होती हैं।
फिर भी मैं सोचता हूं कि सारी नैतिकता की उम्मीद छोटे पत्रकारों से ही क्यों की जाती है। इसका जवाब मैं आप सभी ब्लॉगर भाइयों से भी चाहता हूं। कृपया मुङो जवाब देकर मुङो भ्रम की स्थिति से निकालिए।
आखिर में मैं अपनी बात एक शेर कहकर ही खत्म करना चाहता हूं,

कितना महीन है अखबार का मुलाजिम, खुद एक खबर है और सबकी खबर लिखता है।