Wednesday, August 26, 2009

भाजपा ने दी सजा, कांग्रेस ने दिया पुरस्कार

कांग्रेस में क्या भाजपा से भी ज्यादा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? यह सवाल अब इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि जहां जसवंत सिंह की किताब ‘जिन्ना: इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंस’ को लेकर भाजपा में तूफान मचा हुआ है वहीं शशि थरूर की पुस्तक ‘इंडिया: फ्राम मिडनाइट टु द मिलेनियम ऐंड बियान्ड’ को लेकर कांग्रेस में कोई हलचल नहीं है।

इन दोनों ही पुस्तकों में दरअसल एक बात समान है और वह है गांधी-नेहरू परिवार की आलोचना। शशि थरूर की पुस्तक जहां इंदिरा से लेकर राहुल गांधी तक को कटघरे में खड़ा करती है वहीं जसवंत सिंह की किताब में जिन्ना के साथ ही नेहरू, गांधी और पटेल को भी विभाजन के लिए समान रूप से जिम्मेदार माना गया है। फर्क अब सिर्फ इतना है कि भाजपा ने जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर कर दिया है, वहीं कांग्रेस ने थरूर को विदेश राज्यमंत्री जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप रखी है। थरूर ने पुस्तक 1997 में लिखी थी और तब वे कांग्रेस के सदस्य नहीं थे।

क्या लिखा है शशि थरूर ने

इंदिरा गांधी :‘इंदिरा गांधी बिना विजन वाली, बिना सोचे-समझे फैसले करती थीं। गरीबी हटाओ का उनका मंत्र बिना सिद्धांत वाला था। उन्होंने बिना सोचे-समझे देश में आपातकाल लगाने, प्रेस पर प्रतिबंध और विरोधियों को जेल भेजने का काम किया।

राजीव गांधी : थरूर ने किताब में लिखा है, राजीव ईमानदारी की बात कहते थे, लेकिन उन पर बोफोर्स मामले में धांधली का आरोप भी लगा। छोटे बच्चे तब कहते थे कि गली-गली में शोर है..।’

सोनिया गांधी : सोनिया गांधी के बारे में तो थरूर ने लिखा है कि, ‘एक बिल्डर की बेटी, बिना कालेज की डिग्री लिए, भारत की सभ्यता को जाने बिना, चेहरे पर गंभीरता का लबादा ओढ़े, भारत का भविष्य बन गई है।

और क्या लिख दिया जसवंत सिंह ने

नेहरू-पटेल : जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक लिखा है ‘सरदार पटेल ने पंजाब और बंगाल के विभाजन की शर्त पर बंटवारे को स्वीकारा था। जसवंत लिखते हैं- लार्ड माउंटबेटन के भारत आने के एक माह के अंदर ही वर्षो तक विभाजन के मुखर विरोधी नेहरू मुल्क के बंटवारे के समर्थक बन गए।

गांधी के बारे में : पुस्तक में जिक्र है कि 1920 तक गांधीजी पूरी तरह अपनी रौ में आ गए थे। इसके बाद जिन्ना कांग्रेस से किनारे किए जाते रहे। उनका मुसलमान होना ही उनके लिए नुकसान बन गया था।

क्यों बन गए जिन्ना भस्मासुर : जिन्ना को ‘उदार, सर्वधर्मग्राही और सेक्युलर’ माना जाता रहा था। जिन्ना को वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने ‘कांग्रेस से भी ज्यादा कांग्रेसी’ समझा था।
मृगेंद्र पांडेय

Friday, July 10, 2009

एक जाम में बिक जाते हैं जाने कितने खबरनवीस

मेरे एक मित्र शाम के समय एक शेर अक्सर बोला करते थे,

एक जाम में बिक जाते हैं जाने कितने खबरनवीस,
सच को कौन कफन पहनाता, गर ये अखबार न होते तो


ये शेर सुनाकर वह मुझ जसे छोटे से पत्रकार को अंदर तक झकझोर दिया करते थे। काफी हद तक उनका यह शेर पत्रकारिता के वर्तमान दौर पर सही प्रतीत होता है। यह जाम पत्रकार के स्तर के हिसाब से सिर्फ चाय पर सिमट जाता है तो इसका दायरा नोटों की थैली तक भी फैल जाता है। हर जाम के पीछे कोई न कोई कहानी छिपी होती है। किसी पत्रकार की वरिष्ठों को खुश करने की मजबूरी हो या फिर कंपनी की जरूरत। इसके पीछे पत्रकारों की आर्थिक मजबूरियां भी छिपी होती हैं।
फिर भी मैं सोचता हूं कि सारी नैतिकता की उम्मीद छोटे पत्रकारों से ही क्यों की जाती है। इसका जवाब मैं आप सभी ब्लॉगर भाइयों से भी चाहता हूं। कृपया मुङो जवाब देकर मुङो भ्रम की स्थिति से निकालिए।
आखिर में मैं अपनी बात एक शेर कहकर ही खत्म करना चाहता हूं,

कितना महीन है अखबार का मुलाजिम, खुद एक खबर है और सबकी खबर लिखता है।

Thursday, July 9, 2009

जनता भुगतेगी मेनका और वरुण को जिताने की सजा

यह विडंबना ही है कि सत्ता पक्ष को नहीं जिताने की सजा क्षेत्र की जनता को ही भुगतनी पड़ती है। जबकि इन क्षेत्रों की कीमत पर कुछ क्षेत्रों को चमका दिया जाता है। अमेठी, रायबरेली इसके बड़े उदाहरण हैं। देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने की खुशफहमी पालने वाला उत्तर प्रदेश इसी दौर से गुजर रहा है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पूरे उत्तर प्रदेश को ही इसकी सजा दी जा रही है। पहले भी सत्तापक्ष को नहीं जिताने वाले क्षेत्रों को विकास की गंगा से महरूम किए जाने की परंपरा रही है। लेकिन क्या यह सही है? इस तरह की ब्लैकमेलिंग से जनता के बीच सरकार की छवि बेहतर हो सकती है।
एक दो ‘अनुकंपाओंज् को छोड़ दें तो इस बार के रेल बजट में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड आदि राज्यों को अनदेखी कर दी गई है। इन में उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र सबसे ऊपर आता है। तराई क्षेत्र (पीलीभीत, बरेली, शाहजहांपुर, आंवला, बदायूं, टनकपुर, लखीमपुर, गोला, मैलानी आदि।) को दुनिया के सबसे बड़े गन्ना, गेहूं और उत्पादक क्षेत्रों में गिना जाता है। इस क्षेत्र की सैकड़ों किलोमीटर लंबी छोटी रेल लाइन को ब्राड गेज में बदलने का प्रस्ताव दशकों पुराना है। इस पर कई बार सर्वे भी किया जाता है। ब्राड गेज से इस क्षेत्र के किसानों और काफी व्यापारियों को काफी फायदा होगा। लेकिन ममता बनर्जी को रेल बजट बनाते समय इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों बंगालियों की भी याद नहीं आई। इस क्षेत्र में राजनीतिक दल ब्राड गेज के मुद्दे पर राजनीति तो करते रहते हैं, लेकिन बजट के समय यह मुद्दा प्रभावी रूप से नहीं उठाते।
इसे वरुण गांधी और मेनका गांधी से जोड़कर देखें तो सही भी है कि जनता उन्हें जिताने की भारी कीमत चुका रही है। लेकिन सरकारों द्वारा क्षेत्र की जनता से इस तरह बदला लेना क्या उचित है। जनता सब देख रही है। इस ब्लैकमेलिंग को जनता भी देख रही है। यह ब्लैकमेलिंग अधिक दिन नहीं चलने वाली।

Sunday, June 28, 2009

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद ने लुटाए 14 करोड़

मोहित पाराशर

भले ही जनता बिजली के लिए सड़कों पर उतरने पर आमादा है। लेकिन देश के माननीय बिजली पर जनता के करोड़ों रुपए लुटा रहे हैं। बीते साल राष्ट्रपति भन, प्रधानमंत्री के आधिकारिक आास और संस का बिजली का कुल बिल करीब 14 करोड़ रुपए रहा। सूचना का अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी में खुलासा हुआ है कि संस से 2008 में 6.25 करोड़ रुपए बिजली के बिल का भुगतान किया गया। वहीं, राष्ट्रपति भन का बिल 6.70 करोड़ रुपए रहा। इसके बा प्रधानमंत्री आास आता है जहां जनरी से सिंबर 2008 के बीच बिजली के बिल का 50.35 लाख रुपए भुगतान किया गया।
लिचस्प रूप से, राष्ट्रपति भन और प्रधानमंत्री कार्यालय का बिजली का बिल बीते तीन वर्षो में सबसे अधिक रहा। मुंबई के निासी आरटीआई ओक चेतन कोठारी ने कहा कि तुलनात्मक रूप से यह बीते तीन र्ष में आ किए गए कुल बिलों का आधा है। उन्होंने बीते चार र्ष में बिजली की यूनिट में हुई खपत और बिजली के लिए खर्च की गई राशि तथा आपातकालीन बिजली कटौती की स्थिति में उपलब्ध प्राधानों से जुड़ी जानकारी चाही थी।
प्रधानमंत्री आास का 2005 में पूरे साल का बिल 7.48 लाख, 2006 में 15.16 लाख और 2007 में 12.39 लाख रुपए रहा था। र्ष 2005 में राष्ट्रपति भन का बिल 3.20 करोड़ रुपए, 2006 में चार करोड़ और 2007 में 4.34 करोड़ रुपए रहा। इसमें धीरे-धीरे बढ़ोत्तरी हुई और र्ष 2008 में यह छह करोड़ रुपए से अधिक हो गया। जाब के मुताबिक प्रधानमंत्री के आास और कार्यालय के लिए पृथक मीटर नहीं है। राष्ट्रपति भन के बिल में प्रेसीडेंट एस्टेट का बिल भी शामिल है। संस के बिल में संस भन, पुस्तकालय की इमारत और एनेक्सी का बिल शामिल है।

Friday, June 26, 2009

खुशखबरी... अब छात्रों को नहीं करनी पड़ेगी आत्महत्या


आम तौर पर जनवरी-फरवरी के महीने में दसवीं की परीक्षा का भूत विद्यार्थियों के साथ ही अभिभावकों पर भी सवार हो जाता है। घर में पूरी तरह से तनाव का माहौल बन जाता है।


देश में शिक्षा और उसके स्तर में सुधार के बारे में बहस तो कई बार हो चुकी है लेकिन कोई सार्थक ठोस कदम नहीं उठाया गया। उच्च शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जाता है लेकिन सबसे ज्यादा सुधार की आवश्यकता स्कूली शिक्षा प्रणाली में है, जिस पर बच्चों का भविष्य पूरी तरह निर्भर करता है। इस दृष्टि से प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में गठित समिति ने जो रिपोर्ट दी है, उसमें दसवीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त कर मूल्यांकन की वैकल्पिक व्यवस्था की बात की गई है। यह निश्चय ही एक ऐतिहासिक कदम होगा और छात्र-छात्राओं को बोर्ड के हौव्वे से बचाने का काम करेगा। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। आम तौर पर जनवरी-फरवरी के महीने में दसवीं की परीक्षा का भूत विद्यार्थियों के साथ उनके माता-पिता पर भी सवार हो जाता है। घर में पूरी तरह से तनाव का माहौल बन जाता है। इसका सबसे प्रमुख कारण है कि आजकल परीक्षा में प्राप्तांकों का महत्व बहुत बढ़ गया है। उसी के आधार पर विद्यार्थी की आगे पढ़ाई के बारे में तय होता। नई व्यवस्था से परीक्षा के दौरान तनाव और बाद में कम अंक आने पर विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या जसी प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। रिपोर्ट के अनुसार ज्ञान अर्जन पीड़ादायक न हो, इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए। बोर्ड की परीक्षा समाप्त करना इस दिशा में पहला कदम होगा। सरकार अब इस बारे में राज्य सरकारों, परीक्षा बोर्डो और विद्यार्थियों के माता-पिता से सलाह लेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार के सौ दिन के एजेंडे में इसे मूर्तरूप दिया जा सकेगा। यशपाल समिति ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद को समाप्त कर राष्ट्रीय उच्च शिक्षा और शोध आयोग बनाने का सुझाव दिया है। यह तो बहस का विषय है, जो लंबा खिंच सकता है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आजादी के 62 वर्ष हो रहे हैं और अभी शिक्षा की वही व्यवस्था लागू है जो लार्ड मैकाले ने 1835 में शुरू की थी। हम लगभग पौने दो सौ साल से अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली में उलङो हुए हैं। कहने के लिए हमारी अपनी व्यवस्था नहीं है। अब एक महत्वपूर्ण सुझाव सामने आया है तो इसके क्रियान्वयन के लिए तुरंत प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए, क्योंकि ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।

Tuesday, June 16, 2009

यूपीए सरकार की भाषाई अक्षमता

मुंबई हमले के बाद सरकार के गरम तेवर अब नरम पड़ चुके हैं। जमात उद दावा हाफिज मोहम्मद सईद की रिहाई के बाद मनमोहन सिंह का लोकसभा में यह कहना कि हमारे पास बातचीत के अलावा विकल्प नहीं है, इस ओर इशारा भी करते हैं। चुनाव जीतने के बाद सरकार द्वारा मुंबई हमले पर अपनाया गया लचर रवैया बताता है कि ‘तेवरों में वह गर्मी चुनावों तक के लिए ही थी। बहरहाल सरकार को यह सोचना होगा कि रिहाई के बाद हाफिज सईद मस्जिद में नमाज तो नहीं पड़ेगा। अब भारत एक और मुंबई हमला ङोलने के लिए तैयार रहे।

महेंद्र सिंह

आम चुनाव में अप्रत्याशित रूप से मजबूत जनादेश पाकर आत्ममुग्ध हो चुकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार आने वाले पांच सालों में देश को कैसी सरकार देने जा रही है। इस पर लोग अपने अपने-अपने तरीके से विचार प्रकट कर रहे हैं। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर यूपीए सरकार अपनी भाषाई अक्षमता स्पष्ट कर चुकी है। हाल में पाकिस्तान की अदालत ने मुंबई हमले के सूत्रधार हाफिज सईद को यह कहते हुए रिहा कर दिया कि सरकार आरोपी के खिलाफ कोई ऐसा सबूत या दस्तावेज पेश करने में विफल रही है जिससे मुंबई हमले में उसकी संलिप्तता का पता चलता हो। खर भारतीय सरजमीं पर आतंक का नंगा नाच प्रायोजित करने वाले मसूद अजहर और हाफिज सईद के खिलाफ पाकिस्तान सरकार के सख्त रुख अख्तियार करने की उम्मीद मनमोहन सिंह और कुछ कथित बुद्धिजीवी स्तंभकार ही कर सकते हैं जो चौबीसों घंटे पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करते रहते हैं। दिलचस्प है कि हाफिज सईद की गिरफ्तारी के बाद भारत सरकार की प्रतिक्रया सिर्फ ‘दुर्भाग्यपूर्णज् पर सीमित होकर रह गई। गरिमा के मानस अवतार शालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उस रात को नींद आई कि नहीं आई। ये तो वही जानें। लेकिन मुंबई हमले में अपने परिजनों को खोने वाले भारतीय, शहीद पुलिस अधिकारियों, सुरक्षा बलों की विधवाओं और बच्चों के साथ हर उस भारतीय को बैचैनी जरूर हुई होगी जिसने 72 घंटे तक मुंबई के जनजीवन को थमते देखा और महसूस किया। सरकार भी वही है। प्रधानमंत्री भी मनमोहन सिंह हैं। फिर अचानक भारतीय नेतृत्व के तेवर इतने नरम क्यों हो गए। ऐसा लगा कि भारत से बहुत दूर कहीं कोई घटना घट गई हो और भारत सरकार को राजनयिक शिष्टाचार के नाते कोई प्रतिक्रया देनी थी। हमारे विदेश मंत्री ने यह कहकर रस्म अदायगी कर दी कि हाफिज सईद की रिहाई दुर्भाग्यपूर्ण है। सही है। हम इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है। वैसे भी पाकिस्तान आजकल स्वात और वजीरिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिका के पैसे से लड़ाई लड़ रहा है। हमें शिकायत पाकिस्तान से नहीं है। हमें भारत सरकार से भी शिकायत नहीं होती अगर उसने चीख चीख कर मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को हर हाल में न्याय के कटघरे में खड़ा करने की बात न की होती। मनमोहन सिंह जी ने इसके बाद संसद में एक और धमाका कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारे पास पाकिस्तान से बाचचीत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। आम भारतीय को यह बात समझ में नहीं आई कि मुंबई हमले से लेकर आम चुनाव के दौरान मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के लिए इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई। क्या यह महज संयोग है कि प्रधानमंत्री संसद में पाकिस्तान के साथ बातचीत का संकेत देते हैं और दो चार दिन बाद ही ओबामा के दूत बिलियम बर्न्‍स भारत आकर मनमोहन सिंह को ओबामा के नाम की पाती देते हैं। लगे हाथ बर्न्‍स यह भी कह देते हैं कि कश्मीर के मामले में वहां के लोगों की बात सुनी जानी चाहिए। अब बर्न्‍स को कौन बताए कि कश्मीर में अभी कुछ माह पहले अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में विधानसभा चुनाव हुए हैं और जनता ने अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भारतीय लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की है। हां अगर बर्न्‍स आईएसआई के पैसे पर पेट पालने वाले हुर्रियत के नेताओं को ही कश्मीरियों की आकांक्षाओं का प्रतीक मानती है तो ये उनकी समस्या है। एक और दिलचस्प बात है कि जब भी कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं की बात होती है तो अमेरिका, ब्रिटेन और भारतीय नेतृत्व को भी पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर की याद नहीं आती जहां के लोग यह भी नहीं जानते कि लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है। इसके लिए हमारे देश का धर्मनिरपेक्ष मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना भारतीय नेतृत्व। हमारे देश के पत्रकार किसी बर्न्‍स या मिलीबैंड से क्यों नहीं पूंछते कि कश्मीरी अवाम की आकांक्षा क्या भारतीय कश्मीर तक ही सीमित है। सवाल तो अरुंधती राय से भी पूछा जा सकता है कि कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन को लेकर सेना पर आरोप लगाने से पहले उन्हें मुजफ्फराबाद में पिछले सात दशकों से लोकतंत्र के साथ हो रहा बलात्कार क्यों नहीं दिखता। क्या हम मान लें कि विलियम बर्न्‍स ओबामा के उस प्लान को आगे बढ़ाने के लिए आए थे जो उन्होंने कश्मीर विवाद को हल करने के लिए अमेरिकी मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत किया था। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि बर्न्‍स के बाद अगले महीने जुलाई में अमेरिकी की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आ रहीं हैं। कश्मीर जसे पुराने अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत ही एक मात्र विकल्प है इससे शायद ही कोई इनकार करे लेकिन बातचीत की मेज पर जाने के पहले बातचीत का माहौल तो बने। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को अपने हनीमून पीरियड में सब कुछ अच्छा लग रहा होगा लेकिन ऐसा हर भारतीय के साथ नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व को यह बात समझ लेनी चाहिए कि खुली हवा में सांस ले रहा हाफिज सईद मस्जिद में जाकर इबादत नहीं कर रहा होगा बल्कि वह भारत में एक और आतंकी मंजर की पटकथा लिखने में जी जान से जुट गया हो गया क्योंकि उसकी दुकान इसी से चलती है। मनमोहन जी मुंबई हमले के बाद उभरे आम जनता के आक्रोश को याद करिए और हनीमून सिंड्रोम से जल्दी निकलिए।

Monday, June 15, 2009

दिल्ली तक पहुंचे नक्सली

नक्सलवादी अपने को भूमिहीन मजदूरों का हितैषी बताते हैं और शोषण मुक्त समाज की स्थापना की बात करते हैं। लेकिन अब ये आम लोगों से पैसे भी वसूलने लगे हैं।

रियाणा के कुरुक्षेत्र से पिछले दिनों 17 नक्सलियों की गिरफ्तारी और उनके मुखिया का यह खुलासा कि तीन महीने से छह नक्सली समूह राज्य में सक्रिय हैं, एक बहुत बड़े खतरे की ओर संकेत करता है। पुलिस ने यह भी माना है कि राज्य के पानीपत, सोनीपत, रोहतक, जींद, कैथल, नरवाना और हिसार में उनका नेटवर्क फैला हुआ है। हैरानी यह है कि झारखंड, बिहार, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ होते हुए नक्सली यहां तक पहुंच गए और सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक भी नहीं लगी। झारखंड में अभी हाल में नक्सलियों ने दो जबदस्त हमले किए जिसमें पुलिस और सीआरपीएफ के 21 जवान शहीद हो गए और कई घायल होकर अस्पताल में मौत से लड़ रहे हैं। नक्सलवादियों का राजधानी के इतने निकट पहुंचना पूरे देश में लाल गलियारा बनाने की साजिश का ही एक हिस्सा है। 42 वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में किसान विद्रोह से शुरू हुआ नक्सलवाद अब तक देश के 630 में से 180 जिलों में फैल चुका है। जबकि 2001 में नक्सली हिंसा से केवल 56 जिले प्रभावित थे। इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक दशक से भी कम समय में वह कितनी तेजी से बढ़ा है। नक्सलवादी अपने को भूमिहीन मजदूरों का हितैषी बताते हैं और शोषण मुक्त समाज की स्थापना की बात करते हैं। ये अधिकतर जमीदारों पर हमले करते हैं, लेकिन अब ये आम लोगों से पैसे भी वसूलने लगे हैं। इधर पुलिस और सुरक्षाबलों पर इनके हमले बढ़ गए हैं। पिछले वर्ष नक्सलियों-माओवादियों ने पूरे देश में एक हजार से अधिक हमले किए। झारखंड में तो इनकी जड़ें इतनी गहरी हो गई हैं कि विभिन्न राजनीतिक दलों को भी इनसे खतरा बढ़ गया है। राज्य में मार्च 2006 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद सुनील महतो, 2007 में पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के पुत्र और पिछले वर्ष जेडीयू के विधायक रमेश मुंडा की हत्या माओवादियों ने की। देश के विभिन्न राज्यों में सक्रिय इन गुटों में बीस हजार से अधिक गुमराह युवक-युवतियां शामिल हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने इससे निपटने के लिए दोहरी रणनीति बनाने की घोषणा की है। पहला, प्रभावित क्षेत्रों में विकास सुनिश्चित करने के साथ कानून-व्यवस्था बहाल की जाएगी और दूसरा गुमराह युवकों की यह विश्वास दिलाना कि हिंसा से समस्या हल नहीं हो सकती। नक्सलियों के प्रभाव को देखते हुए तुरंत कदम नहीं उठाए गए तो यह आतंकवाद से भी बड़ा खतरा बन सकता है।
(आज समाज से साभार)

Wednesday, June 10, 2009

भाजपा और संघ की खींचतान सतह पर

पार्टी में नेताओं की दूसरी श्रेणी है, उनमें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसका कद अटल क्या, आडवाणी के बराबर हो। इस संघर्ष में जब पार्टी कमजोर होगी और ऐसे में उसमें संघ का हस्तक्षेप बढ़ेगा।

लोकसभा चुनावों में हार को लेकर भारतीय जनता पार्टी में मचा घमासान और तेज हो गया है। इसका कारण है पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के निकटतम रणनीतिकार सुधींद्र कुलकर्णी द्वारा किए गए कुछ रहस्योद्घाटन। उन्होंने पार्टी की हार के लिए नेतृत्व और संघ को निशाने पर लिया है और कहा है कि दोनों ने आडवाणी को कमजोर और असहाय बनाया। पार्टी के अनेक नेता इस टिप्पणी से बौखला उठे हैं, जिससे साबित होता है कि बात में कुछ दम है। राजनीतिक दलों में असुविधाजनक बयान को निजी विचार कहकर टाल दिया जाता है। भाजपा ने इससे अपने को अलग कर लिया है। आडवाणी भी इससे सहमत नहीं हैं। यह उनकी मजबूरी है। फिर भी लोग यही कहेंगे कि आडवाणी की इसमें कहीं न कहीं सहमति है, क्योंकि कुलकर्णी चुनावों के दौरान पार्टी के ‘वार रूमज् की कमान संभाले हुए थे। ऐसा आदमी अगर कुछ कह रहा है तो उसमें ‘कुछज् तो सच्चाई होगी। जिन्ना प्रकरण में भी कुलकर्णी ने पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए मुसीबत पैदा कर दी थी। चुनाव परिणाम आने के बाद ही पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने दबी जुबान से यह कहना शुरू कर दिया था कि हिंदुत्व के रास्ते से भटकने के कारण ही उसे हार का सामना करना पड़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पार्टी को अपनी मूल विचारधारा पर लौटने के लिए कहा है। वैसे चुनाव अभियान के दौरान भी पार्टी हिंदुत्व के मुद्दे पर भी उलझन में ही रही और कोई स्पष्ट रुख नहीं अपना सकी। वह मुद्दों की तलाश में ही भटकती रह गई। संघ के नेताओं में एक वर्ग ऐसा है जो यह मानता है कि अल्पसंख्यकों का वोट मिले बिना पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती है। कुछ ने तो इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिए हैं। असलियत यह है कि भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष नेतृत्व को लेकर बहुत दिनों से सवाल उठ रहे हैं। अटल के बाद आडवाणी ने संभाला लेकिन अब आगे कौन संभालेगा? इन्हीं सवालों में उलझी पार्टी को जब चुनावों में कांग्रेस के हाथों करारी शिकस्त मिली तो नेतृत्व की यह लड़ाई बाहर आ गई है। पार्टी में नेताओं की दूसरी श्रेणी है, उनमें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसका कद अटल क्या, आडवाणी के बराबर हो। इस संघर्ष में जब पार्टी कमजोर होगी और ऐसे में उसमें संघ का हस्तक्षेप बढ़ेगा। अगर एक बार पार्टी संघ के चक्कर में फंस गई तो उसका बाहर निकलना मुश्किल हो जाएगा और तब उसका राजनीतिक लक्ष्य भी संघ ही निर्धारित करेगा।
(आज समाज से साभार)

Monday, June 8, 2009

महिला आरक्षण के नाम पर धोखा


सभी दलों के समर्थन के बावजूद विधेयक न पारित होना हैरानी में डालता है।
महिला आरक्षण विधेयक पिछले 13 वर्षो से अधर में लटका हुआ है और इसके लिए जिम्मेदार है राजनीतिक दलों में इच्छा शक्ति की कमी। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों का समर्थन होने के बावजूद विधेयक पारित न हो पाना क्या दर्शाता है? यही कि ऊपर से नहीं, लेकिन भीतर ही भीतर हर दल में आरक्षण विरोधी लोग हैं, जो किसी न किसी बहाने विधेयक की राह में रोड़े बना रहे हैं। इसके लिए समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जेडीयू सरीखी पार्टियों को ही क्यों दोष दिया जाए। ये पार्टियां अगर विरोध कर रही हैं तो इनके अपने-अपने तर्क हैं और कम से कम ये खुलेआम विरोध में हैं। लेकिन खामोश रह कर जो विरोध कर रहे हैं उनका क्या इलाज हो सकता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने जब से घोषणा की है कि उसके सौ दिन के एजेंडे में महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाना भी है, तब से यह मामला फिर गरमा गया है। एक नेता ने तो इस पर पहले यह कहा कि अगर वर्तमान स्वरूप में विधेयक पारित हो गया तो वह जहर खा लेंगे लेकिन बाद में पलट गए और कहने लगे कि वे तो चाहते हैं कि महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए। अगर वे आरक्षण के इतने हिमायती हैं तो 33 प्रतिशत पर ही क्यों नहीं राजी हो जाते। समाज के कमजोर वर्गो का हिमायती बनने वाली समाजवादी पार्टी को भी विधेयक का वर्तमान स्वरूप स्वीकार्य नहीं है। इसी का फायदा उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि वह विधेयक का समर्थन करती है, लेकिन छोटी-छोटी पार्टियों की बात भी सुनी जानी चाहिए। यह एक तरह से मामले को टालने का तरीका है। सबसे हैरानी की बात यह है कि कोई भी दल विधेयक के विरोध में नहीं है, लेकिन जब विधेयक पारित करने की बात आती है तो उसके विरोध में लोग खड़े हो जाते हैं। राष्ट्रहित में यह अच्छा ही होगा कि विधेयक आम राय से पारित हो लेकिन इस पर सहमति बनने की उम्मीद नहीं लग रही है, क्योंकि सभी के संशोधनों को विधेयक में समाहित करना संभव नहीं। राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी है कि वे केवल महिलाओं का हितैषी होने का दिखावा न करें, बल्कि उनके हित के लिए इस विधेयक को पारित कराने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाएं।
(आज समाज से साभार)

Sunday, June 7, 2009

ब्लॉग को आर्कुट से कैसे जोड़ते हैं

ब्लॉगर भाईयों, अगर किसी को यह मालूम है कि अपने ब्लॉग को अपने आर्कुट से कैसे जोड़ते हैं। कृपया बताएं, धन्यवाद।

Thursday, June 4, 2009

असली रंग में आया पाकिस्तान




सईद की रिहाई ने पाकिस्तान के असली सियासी चेहरे को बेनकाब कर दिया है।

सुरक्षा परिषद द्वारा प्रतिबंधित जमात-उद-दावा के प्रमुख और अवैध घोषित लश्कर-ए-तोइबा के संस्थापक हाफिज मुहम्मद सईद की सबूतों के अभाव में लाहौर हाईकोर्ट द्वारा रिहाई ने पाकिस्तान के असली सियासी चेहरे को बेनकाब कर दिया है। सईद मुंबई हमले का मुख्य साजिशकर्ता है, जिसका जिक्र पाकिस्तानी आतंकवादी कस्साब ने भी अपने बयान में किया है। भारत में लश्कर के हर हमले के पीछे सईद का हाथ बताया जाता है। 26/11 के बाद पाकिस्तान ने उसे घर में नजर बंद कर दिया था लेकिन अदालत में सरकारी वकील की लचर दलीलों की वजह से उसको छोड़ दिया गया। ऊपर से पाकिस्तान यह कह रहा है कि इस रिहाई के लिए भारत ही जिम्मेदार है क्योंकि उसने मामले में सहयोग नहीं किया। पाकिस्तान अपनी कमजोरी का ठीकरा भारत के सिर फोड़ना चाहता है। लेकिन उसे मालूम है कि सईद की रिहाई का अतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्या असर पड़ेगा। शायद इसीलिए पंजाब की प्रांतीय सरकार ने रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने का फैसला किया है। भले ही यह कदम दिखावे के लिए हो, लेकिन पाकिस्तान अंतराष्ट्रीय स्तर पर यह कह सकता है कि उसने संविधान के तहत कार्रवाई की। पाकिस्तान ने जानबूझकर हाईकोर्ट के सामने सईद के मामले को कमजोर करके पेश किया और बदनाम भारत को कर रहा है। लगे हाथ पाकिस्तान ने आतंकवाद के साथ कश्मीर मसले को जोड़ दिया है। प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने कहा है कि कश्मीर मसला हल होने पर ही स्थायी शांति स्थापित हो सकती है। उन्होंने राष्ट्रसंघ प्रस्ताव और कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात उठाकर निहायत ही बचकानेपन का परिचय दिया है। उनकी यह टिप्पणी किसी भी रूप से जायज नहीं कही जा सकती। पाकिस्तानी रहनुमाओं के लिए कश्मीर एक झुनझुना है, जिसे वे जनता के सामने समय-समय पर बजाते रहते हैं। वहां की जनता इससे खुश हो जाती है। रही बात गिलानी की तो बयान बदलने में उनसे ज्यादा माहिर कोई नहीं। मुंबई हमले के बाद से उनके तमाम बयान इस बात के ठोस सबूत हैं। सईद की रिहाई वैसे भी पाकिस्तान के लिए परेशानी का सबब बनने वाली है। तालिबान के साथ मिलकर लश्कर भी अपने हमले तेज करेगा और उसका खामियाजा बेगुनाहों को भुगतना पड़ेगा। भारत के लिए अच्छा यही होगा कि आतंकवाद के मुद्दे पर वह पाकिस्तान के किसी बहकावे में न आए और अपना दबाव बनाए रखे।

(आज समाज से साभार)

Tuesday, June 2, 2009

सपोले पालना भारत की आदत बन गई है


यह विडंबना ही है कि सपोले पालना भारत की आदत बन गई है। जो लोग भारत माता के सीने को चीरने की बात करते हैं, उन्हें रसद पानी की आपूर्ति करने में भारत के ही लोग सबसे आगे रहते हैं। इसी का उदाहरण है कस्साब को बचाने के लिए जिरह कर रहे वकील के सौगात देने की सरकार ने तैयारी कर ली है। अभी तक सरकार कस्साब की दामाद की तरह खातिरदारी कर रही थी, अब उसका वकील भी मौज करेगा। वकील 26/11 के आतंकाी हमले के मुख्य आरोपी मोहम्म अजमल आमिर कस्साब के कील अब्बास काजमी को महाराष्ट्र सरकार मेहनताने के रूप में प्रतिनि ढाई हजार रुपए ेगी। मामले की सुनाई हर हफ्ते सोमार से शुक्रार तक पांच नि होगी। कस्साब का बचा करने के लिए फीस के रूप में काजमी को हर हफ्ते 12,500 रुपए और हर महीने 50 हजार रुपए का भुगतान किया जाएगा।
आगे-आगे देखिए जनाब क्या-क्या देखने को मिलता है। शायद कस्साब और उसके वकील के लिए देश में ही स्वागत समारोह भी होने लगें।

Sunday, May 31, 2009

एक संस्कृतिविहीन सरकार का सच

साहित्य संगीत कलाविहीन: साक्षात पशु पुच्छ विशाणहीन:

मंत्री पद के लिए घटक दलों की राजनीतिक खींचतान और कांग्रेस पार्टी के अंदर संतुलन बनाए रखने के प्रयास में मनमोहन सिंह सरकार ने पिछले दो दशक से काम कर रहे एक महत्वपूर्ण मंत्रालय की बलि दे दी, जिसकी वजह से अब देश में सरकारी स्तर पर संस्कृति और कला का कोई पुरसाहाल नहीं है।

राष्ट्रपति भवन से जारी मंत्रियों और उनके विभागों की आधिकारिक विस्तृत सूची में संस्कृति मंत्रालय का उल्लेख नहीं है, जबकि पिछली सरकार में इसे कैबिनेट स्तर का मंत्रालय माना गया था और अंबिका सोनी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई थी। संस्कृति मंत्रालय के तहत पचास से अधिक संगठन काम करते हैं, जिनमें देश के सभी प्रमुख पुस्तकालय, गांधी स्मृति, नेहरू स्मारक, सालारजंग, रजा और खुदाबख्श लाइब्रेरी, राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राष्ट्रीय संग्रहालय और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय शामिल हैं।

मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में कुल 79 सदस्य हैं, पर इस मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी किसी को नहीं सौंपा गया है। संस्कृति विभाग 1986 तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत था, पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संस्कृति पर विशेष जोर देने के लिए इसे अलग मंत्रालय बनाया। उस समय पीवी नरसिंह राव मानव संसाधन विकास मंत्री थे और संस्कृति विभाग अलग होने के बाद भास्कर घोष पहले संस्कृति सचिव बने। इसी मंत्रालय ने दुनिया के कई देशों में भारत उत्सव का आयोजन किया। इसी के तहत सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक कें्र बनाए गए ताकि देश में सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया जा सके।

कला और संस्कृति के हर स्वरूप और विधा प्रोत्साहित और प्रचारित करने की जिम्मेदारी संस्कृति मंत्रालय की है। इसके अंतर्गत एशियाटिक सोसायटी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, ललित कला अकादमी और इंदिरा गांधी कला कें्र भी आते हैं, जो स्वायत्तशासी संगठन हैं। मंत्रालय से जुड़े एक अधिकारी ने कहा कि एक दिन पहले तक अंबिका सोनी उनकी मंत्री थीं, पर अब उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है कि इसका काम कौन देखेगा।

यह पूछे जाने पर कि क्या यह राजनीतिक जोड़-तोड़ के बीच हुई चूक है, प्रधानमंत्री की सूचना सलाहकार दीपक संधू ने कहा कि मंत्रिपरिषद का गठन काफी सोच विचार के बाद किया जाता है, इसलिए ऐसी चूक नहीं हो सकती कि किसी मंत्रालय का नाम छूट जाए। उन्होंने कहा कि जो भी मंत्रालय या विभाग किसी को आवंटित नहीं है, उसे प्रधानमंत्री के अधीन माना जाता है।

आज समाज से सभार

Friday, May 29, 2009

संघ की गुलामी का भविष्य

भारतीय जनता पार्टी इन आम चुनावों में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी है। हालांकि उसने सत्ता वापस पाने के लिए भरपूर प्रयास किए लेकिन वह इसमें कामयाब नहीं हो पाई। इसके कई कारण बताए जा रहे हैं लेकिन एक कारण जो सभी मान रहे हैं वह है कि जनता अब एक स्थिर और काम करने वाली सरकार चाहती थी। तो क्या यह समझा जाए कि मतदाता भाजपा को इस लायक नहीं समझते हैं कि वह देश को एक स्थिर सरकार दे सकती है
भाजपा ने ही देश भर में कांग्रेस के प्रभुत्व को खत्म करने में सफलता पाई थी और आज भी वही एक दल है जो कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने में सक्षम है। लेकिन अब जब चुनावों की खुमारी उतरने लगी है तो इस बात पर संदेह होने लगा है कि क्या इस पार्टी का वही दमखम बना रहेगा। यह शक होने के कई कारण हैं। इस पार्टी के जो दो सबसे दिग्गज नेता थे- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी-उनमें से वाजपेयी इस चुनाव से पहले ही सक्रिय राजनीति से अलग हो गए और अब आडवाणी भी सक्रिय राजनीति से अलग होना चाहते हैं। वैसे भी जब पांच साल बाद चुनाव होंगे तो आडवाणी की उम्र को देखते हुए उनसे इसी सक्रियता से काम करने की अपेक्षा करना सही नहीं होगा।
अभी तक आडवाणी ही थे जो पार्टी के आधार को व्यापक बनाने, संगठन को मजबूत करने और पार्टी में एकता बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाते रहे। अब पार्टी एक तरह से दोराहे पर खड़ी है। उसे अपना रास्ता एकबारगी तय करना है कि वह क्या चाहती है। क्या वह फिर से राम मंदिर जसे भावनात्मक मुद्दों को उठाने वाली पुरानी पार्टी बन जाए या फिर मुख्यधारा में शामिल हो विकास की बात करने वाली पार्टी बने। इस मामले में ध्यान देने वाली बात यह है कि अब वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के काम में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। एक वही नेता थे जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता था।
संघ ने जिन्ना के मुद्दे को लेकर किस तरह आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए बाध्य किया, वह किसी से छिपा नहीं है। इससे इन अंदेशों को बल मिलता है कि अब पार्टी के मामले में संघ का हस्तक्षेप बढ़ता ही जाएगा। संघ के साथ ही विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जसे संगठन भी अब अपना खेल दूसरी तरह से खेलना शुरू करेंगे। अभी तक भाजपा उनकी हर बात का समर्थन नहीं करती थी जिससे परिषद और भाजपा के बीच कई बार तनातनी की स्थिति भी बन गई। आडवाणी की पार्टी मामलों में जब सक्रियता कम होने लगेगी तो क्या होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
अब कोई ऐसा नेता नजर नहीं आता जो संघ को अपनी जगह पर रखने के लिए उससे बात कर सके। इस परिदृश्य में मुरली मनोहर जोशी ही बचते हैं जो संघ से बात कर सकते हैं लेकिन उनकी स्वीकार्यता पार्टी में नजर नहीं आती। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, अरुण जेटली तथा सुषमा स्वराज सरीखे दूसरी पीढ़ी के नेताओं के पास संघ की बात सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रदेश में संघ से टकराव ले चुके हैं लेकिन अल्पसंख्यक विरोधी उनकी छवि राष्ट्रीय नेता बनने के उनके सपने में आड़े आएगी। दूसरी बात उनके राष्ट्रीय परिदृश्य में सक्रिय होने से राजग का बिखराव निश्चित हो जाएगा। जनता दल-यू ने तो मोदी को चुनावों में बिहार नहीं आने दिया और चुनाव परिणामों के बाद तो और तल्ख अंदाज में यह भी कहा कि मोदी और वरुण गांधी के कारण ही राजग को हार का सामना करना पड़ा।
यदि भाजपा ने विकास के रास्ते को नहीं चुना तो राजग को बांधे रहना मुश्किल हो जाएगा। उड़ीसा में बीजू जनता दल ने जिस तरह से भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद उसका राज्य से सफाया कर दिया, वह बिहार में नीतीश कुमार भी कर सकते हैं। राजग का एक अन्य घटक अकाली दल भी साफ-साफ कह चुका है कि भाजपा सांप्रदायिक हो चुकी है इसलिए हमें हार का सामना करना पड़ा। इसी राजग के दम पर भाजपा ने कांग्रेस को किनारे कर दिया था और अब यही राजग भाजपा को किनारे लगा सकता है। भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि अब घृणा की राजनीति के दिन लद गए हैं। किसी एक वर्ग, धर्म या जाति के लोगों को लेकर अब राजनीति नहीं की जा सकती। दूसरे उसे साफ छवि के युवा नेताओं को आगे कर पार्टी को एक नई छवि देनी चाहिए। उसके पास इस समय एक भी ऐसा नेता नहीं है जो कांग्रेस के राहुल गांधी की तोड़ रखता हो। हालांकि भाजपा के पास भी एक गांधी है लेकिन उसने राजनीति की पारी जिस अंदाज से शुरू की है उससे उसकी उछाल सीमित हो गई है।
-राजीव पांडे
(29 मई 09 को आज समाज में प्रकाशित)

Wednesday, May 27, 2009

एक आंधी आएगी, दीदी राइटर जाएगी

लोकसभा चुना की उपलब्धियों का जिक्र करें और ममता की बात न हो ऐसा नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह की सरकार कैसे बनी और भाजपा कैसे हारी यह भले ही उन दोनों दलों के नेताओं और रणनीतिकारों की समझ में न आ रहा हो, लेकिन ममता से करिश्मे की उम्मीद सभी को थी। लोगों को या कहें कि पश्चिम बंगाल की जनता औरोम दलों को भी दीदी की आंधी का अंदाजा नहीं था।ोम दल लगातार कह रहे थे कि ह कें्र में गैर कांग्रेस गैर भाजपा सरकार बनाएंगे। इससे अलग दीदी ने बंगाल की फिजा में एक नया नारा दिया। ठीक उस तरह जसे आजादी के आंदोलन में क्रांतिकारियों और देशभक्तों ने दिया था।

ममता ने लोगों के सामनेोम दलों के 35 साल के शासन के सामने मां, माटी और मानुस का नारा दिया। इसका जनता में इतना असर हुआ कि ‘दो फूलज् एक से बढ़कर 19 सीट पर पहुंच गई। इसे ममता का ही करिश्मा कहेंगे, कि जब पूरे देश ने क्षेत्रीय दलों को जनता ने सिरे से नकाराना शुरू किया, उस समय तृणमूल कांग्रेस अपने शबाब पर है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, केरल जसे प्रदेशों में जनता ने क्षेत्रीय दलों को सिरे से नकार दिया। बिहार के परिणाम तो अप्रत्याशित हैं। रामलिास और लालू के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई। हालांकि नीतीश कुमार और नीन पटनायक की पार्टी ने जीत दर्ज की। बिहार में लंबे समय से व्याप्त अराजकता को कम करने और उड़ीसा की जनता में आत्मशिस पैदा करने के कारण जीत हुई।

ममता की जीत को इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। ममता ने लोगों में नई उम्मीद, नया जोश, नए जज्बात पैदा किया। उसने लोगों में आश जगाई किोम गढ़ में भी लाल झंडे को उखाड़ा जा सकता है। एक समय ऐसा था जबोम दलों के लिए झंडे बनानेोले लोग दूसरे दलों के झंडे तक नहीं बनाया करते थे।ोल पेंटिंग और पोस्टरों को लोग उखाड़ देते थे। दीदी ने उन लोगों में एक नया जोश भरा। उनको सपनों में लाल गढ़ से बाहर की दुनिया को दिखाई है। उम्मीद का दामन थामकर एक ऐसे आसमान में उड़ने के लिए प्रेरित किया जो पिछले 35 साल में कोई नहीं कर पाया था। यह काम केल ममता ही कर सकतीं थीं। क्योंकि ऐसा करने का माद्दा सिर्फ और सिर्फ उनमें ही है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि लोगों में उम्मीद और नए अरमान भरने के बाद दीदी की नजर राइटर बिल्डिंग पर टिक गई है। दीदी को उम्मीद है कि जनता अब प्रदेश के किास के लिए ‘लाल‘ नहीं ‘नीलेज् झंडे का साथ देगी।

ऐसा नहीं है कि राइटर बिल्डिंग पर नीला झंडा लगाना ममता के लिए काफी आसान होगा। पश्चिम बंगाल में धिानसभा चुना होने में अभी दो साल का समय है। हार के बादोम दलों में जिस प्रकार आत्ममंथन का दौर शुरू हुआ है, ैसा न तो भाजपा में देखने को मिला न ही किसी और दल में।ोम दलों ने स्ीकार किया कि उनके प्रचार का तरीका गलत था। ऐसे में इस बात का अंदाजा लगा पाना कितना सहज है किोम अपने गढ़ को खोने के बाद नई रणनीति बनाने और ममता की आंधी को रोकने के लिए े सारे प्रयास करेंगे। ममता के सामने भी चुनौतियां कम नहीं है। कें्र में दो साल मंत्री रहने के बाद उनको और उनके सांसदों को कम से कम इतना तो करना ही होगा कि जनता को लगे, कि ममता को जिताने का उनका निर्णय सही है। इसके लिए ममता को सेज और निेश जसे मामलों में कांग्रेस से दो चार होना पड़ सकता है।

ममता लगातार सेज और निेश का रिोध करतीं रहीं हैं, जबकि कांग्रेस उसकी पक्षधर रही है। ऐसे में ममता अगर कांग्रेस के साथ खड़ी नजर आतीं हैं तो मामला एकदम उलट हो सकता है।ोम दल भी इसी फिराक में बैठे हैं। दूसरी बात ममता अगर बुद्धदे के किास के माडल को गलत बतातीं हैं और जनता उनको उस रिोध के कारण पसंद करती है तो उनको प्रदेश के किास के लिएोम दलों से अलग एक माडल देना होगा। ममता का यह माडलोम दलों से अलग होगा तो जनता उनके साथ होगी। इसके लिए उनको प्रदेश में औद्योगीकरण करना होगा, लेकिन उन्होंने टाटा को प्रदेश से बाहर करने के लिए लंबा चौड़ा आंदोलन किया। ऐसे में जब वह फिर से औद्योगीकरण की बात करेंगी तो वाम दल उनको घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। अगर ममता विकास नहीं कर पातीं हैं तो इस बार जनता के सामने किन मुद्दों पर जाएंगी, क्योंकि लोकसभा तो सिंगुर और नंदीग्राम पर जीत लिया, लेकिन अब जब जनता यह कह रही है कि ‘एक आंधी आएगी, दीदी राइटर जाएगीज् उस समय राइटर बिल्डिंग पर कब्जा दीदी के लिए आसान नहीं होगा।
मृगेंद्र पांडेय

Friday, May 15, 2009

अखबार वाले हो, कोई खुदा नहीं


भारत के एक प्रमुख मीडिया समूह ने इन दिनों सुभिक्षा रिटेल समूह के खिलाफ अभियान चला रखा है। अगर यह कहें तो बेहतर होगा कि वह सुभिक्षा को पूरी तरह बर्बाद करने पर आमादा है। इसका एक कारण यह भी है कि इस मीडिया समूह की सुभिक्षा के प्रतिद्वंद्वी समूह में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। यह व्यावसायिक हितों के लिए मीडिया के उपयोग का छोटा सा उदाहरण है। मंदी के दौर में इस तरह का अभियान काफी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि सुभिक्षा के साथ हजारों कर्मचारियों का भविष्य जुड़ा हुआ है।
हो सकता है कि ‘सुभिक्षा को नकदी का संकटज् जसी इन खबरों के पीछ सच्चाई भी हो। लेकिन ऐसी खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने को मीडिया समूह के व्यावसायिक हितों से जोड़कर ही देखा जाएगा। वैसे भी सुभिक्षा के खिलाफ मीडिया समूह द्वारा एक-डेढ़ साल से चल रहे इस अभियान का और क्या उद्देश्य हो सकता है?
चुनाव के दौरान भी बड़े समाचार पत्र समूहों द्वारा राजनीतिक दलों/प्रत्याशियों से अवैध धन उगाही (या विज्ञापन के नाम जबरन पैसे मांगना) जसी काफी चर्चाएं थीं। एेसी बातों की जमकर अलोचना भी हुई थी। इसे पत्रकारिता माफिया के भ्रष्टाचार की संज्ञा से भी नवाजा गया। व्यावसायिक हितों के लिए मीडिया का इस्तेमाल और खबर छापने या नहीं छापने के लिए मुंह खोलकर पैसा मांगने में कोई अंतर नहीं है।
मीडिया समूह को सोचना चाहिए कि वह खुदा नहीं है। वह किसी उद्योग को प्रभावित तो कर सकते हैं, लेकिन चौपट नहीं। किसी के खिलाफ लगातार लिखने से जनता को भी एहसास होता है कि क्ष्रु निजी स्वार्थो से प्रेरित होकर ही इस तरह की खबरें प्रकाशित की जा रही हैं। मीडिया की विश्वसनीयता पहले से ही संकट में है। इस तरह की खबरों से जनता को अधिक दिनों तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। न ही मीडिया जगत का भला हो सकता है।

Wednesday, May 6, 2009

कांग्रेस की ऐतिहासिक बेशर्मी

शायद कांग्रेस की इस बदहाली पर मैं कुछ देर से गौर कर रहा हूं, लेकिन यह सही है कि सत्ता के लालच में 15वीं लोकसभा के इस चुनाव में कांग्रेस ऐतिहासिक बेशर्मी पर उतर आई है। वैसे अब तक धर्म निरपेक्ष दलों की अगुवा यह पार्टी भाजपा और अन्य कुछ हिंदूवादी दलों (शिवसेना आदि) को छोड़कर अप्रत्यक्ष रूप से हर दरवाजे पर अपना सिर पटक चुकी है। इतना ही नहीं कांग्रेस द्वारा भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के साझीदार नीतीश कुमार को अच्छा नेता करार दिया जा चुका है। नीतीश की प्रशंसा करते समय कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने अपने पुराने दोस्त लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान की दोस्ती तक को ताक पर रख दिया। इसके साथ जयाललिता से दोस्ती करने को बेकरार कांग्रेस करुणानिधि को ठेंगा दिखाने को तैयार नजर आ रही है। परमाणु करार को लेकर कांग्रेस ने वाम दलों की ठोकर खाई थी, लेकिन सत्ता को लेकर कांग्रेस फिर से उनके तलुए चाटने को तैयार है। लेकिन वाम दल हैं कि मानते ही नहीं।
बहरहाल, कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के बाद होने वाली दुर्दशा का अंदाजा हो गया है। लेकिन सत्तालोलुपता ने उसे इस कदर बेशर्म बना दिया है कि जिन्हें वो कल तक फूटी आंख नहीं सुहाते थे आज उन्हें गले लगाने को भी तैयार है।
1950 से अब तक की कांग्रेस पर गौर करें तो पाते हैं कि इस पार्टी की इतनी बुरी गत अभी तक नहीं हुई। क्षेत्रीय दलों के सहारे के बिना कांग्रेस एक कदम भी चलने में सक्षम नजर नहीं आ रही है। चुनाव से पहले मुलायम, लालू और पासवान ने उन्हें ठोकर मारी थी। तो अब वाम दल उनकी ओर मुंह करने को तैयार नहीं है।

Wednesday, April 29, 2009

बोफोर्स का सबक-बड़े अपराध करो और मौज करो


छोटे-छोटे अपराधों के लिए हर साल लाखों कैदियों को देश की जेलों में ठूंसा जाता है। लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई को लूटने वाले बड़े अपराधी मौज करते देखे जाते हैं। इसलिए बोफोर्स घोटाला छोटे अपराधियों के लिए सबक ही है कि करो तो बड़े घोटाले। उसके बाद अदालत में मामला, फिर राजनीति और मीडिया में छा जाना। राजनीति में कामयाब रहे तो बरी या फिर कुछ सालों की सजा।
जैसा कि बोफोर्स घोटाले में हुआ। 80 के दशक में गरीब भारत की जनता की गाढ़ी कमाई के 150 अरब रुपए रिश्वत के रूप में दे दिए गए। इटली के ओतावियो क्वात्रोच्चि, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, तीन हिन्दुजा बंधु, रक्षा सचिव आदि कई लोग आरोपी भी बने। लेकिन सरकार के सीबीआई नामक हथियार के सहारे धीरे-धीरे सभी बरी भी होते गए। सीबीआई ने एक मात्र मुख्य आरोपी माने जा रहे क्वात्रोच्चि को लगभग पाक-साफ करार दे दिया। जिसका खुलासा हाल ही में हुआ। यहां सवाल उठता है कि अगर कोई भी दोषी नहीं है तो देश का 150 अरब रुपया कहां गया।
ऐसे में बोफोर्स घोटाले से छोटे अपराधियों को सबक लेना चाहिए कि बड़े अपराधों को ही तरजीह दें। कोई दिक्कत हो तो किसी भी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लें। अगर कांग्रेस में शामिल हों तो कुछ बेहतर रहेगा। फिर किसी भी दल में राजनीति का विकल्प हमेशा के लिए खुल जाएगा।














Friday, April 24, 2009

बिहारीपन को बेचा अब खरीद रहे हैं

बिहार के बिहारीपन को बेचने के बाद प्रकाश झा अब उसे खरीदने पहुंच गए हैं। पश्चिमी चंपारण से लोजपा उम्मीदवार झा को भले ही पार्टी ने लालू के साले के विरोध के बावजूद टिकट दिया हो, लेकिन अपहरण, गंगाजल बनाने वाले प्रकाश भी चुनाव जितने के लिए उन्हीं नेताओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। जब से झा ‘सामाजिक न्याय रथज् पर सवार हुए हैं उन्हें बिहार की संवेदना, उसका पिछड़ापन, गरीबी, अत्याचार नजर नहीं आ रहे हैं। यहां मकसद साफ है। वह सब करने में कोई गुरेज नहीं, जिसका लगातार विरोध करते रहे हैं। सत्ता होती ही ऐसी है। लोगों को अंधा बना देती है। जिनके पास है उसे भी और जो उसकी तलाश में हैं उसे भी।
प्रकाश के कार्यालय पर पुलिस छापे से बरामद दस लाख रुपए उनकी उस साफ स्वच्छ फिल्मी छवि को झूठलाने के लिए काफी है, जिसे पर्दे पर फिल्माकर वह काफी वाहवाही लूट चुके हैं। दरअसल पर्दे का सच, वास्तविक जिंदगी में सच हो यह जरूरी नहीं है। यही कारण है कि देश की गरीबी, मध्यम वर्ग का शोषण और बदहाल जिंदगी को सिनेमा के पर्दे पर बखुबी उतारने वाले कलाकार जब देश की सर्वोच्च संसद में पहुंचते हैं तो उन्हें शायद यह सब दिखाई देना बंद हो जाता है। वह न तो संसद में सवाल पूछते हैं, न ही बैठक में उपस्थित होते हैं। उन्हें गरीबी केवल फिल्मों में ही नजर आता है। अपनी अदाकरी को दमदार बनाने के लिए ये कलाकार भले ही गरीबों के घरों में जाते हों, उनके साथ समय बिताते हों, लेकिन जब उनका भला करने की बात आती है तो उन्हें वह सब नजर नहीं आता है, जिन दिक्कतों से गरीबों को रोजाना रू-ब-रू होना पड़ता है। यह ठीक वैसा ही है जसा राहुल गांधी करते हैं। गरीबों के घर जाते हैं। उन्हें लंबे चौड़े आश्वासन देते हैं और बाद में भूल जाते हैं। उनका उद्धार कोई एनजीओ करता है। चाहे वह कलावती हो या फिर छत्तीसगढ़ और बुंदेलखंड के गांव में बिताई गई रात।
आखिर यह कैसी संवेदना है, जिसे पर्दे पर तो उतारने के लिए पूरी मेहनत की जाती है। यह कहें कि अपने अभिनय से जितनी भी इमानदारी कर सकते हैं, कलाकार करते हैं। क्या इसे कलाकारों की संवेदनहीनता नहीं कहेंगे, जो पर्दे पर तो सब अच्छा करने के दंभ भरते हैं। क्या यह देश के उन हजारों लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है। उन कलाकारों का जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता है, वह अगर देश की सर्वोच्च संसद में पहुंचते हैं तो उनका वह खोखलापन सामने आ जाता है, जिसे पर पर्दे पर बखुबी निभाते हैं। इस तरह के नेताओं के राजनीति में प्रवेश का लगातार विरोध होता रहा है। लेकिन राजनीतिक दलों की जिताऊ उम्मीदवारों की खोज फिल्मी कलाकारों पर ही जाकर रुकती है। क्योंकि जनता को वास्तविक मुद्दों से दूर रखने के लिए इनके लटके-झटके ज्यादा कारगर होते हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर हम उन नेताओं को क्यों चुने, जिन्हे चुनावी मौसम में ही हमारी याद आती है। मौसम खत्म यह भी मेंढक की तरह नदारद हो जाते हैं। चाहे वह अमिताभ हों, गोविंदा हों या फिर कोई और। अब इस कड़ी में कोई प्रकाश झा न जुड़ जाए।
मृगेंद्र पांडेय

Wednesday, April 22, 2009

माया को पीएम बनाओ, देश का बंटाधार करो

सोशल इंजीनियरिंग के बल पर यूपी की सत्ता पर काबिज होने वाली मायावती विदेशी मीडिया को फूटी आंख नहीं सुहाती हैं। भले ही माया सर्वसमाज की बात करने का दावा करें लेकिन विदेशी मीडिया उन्हें समाज में फूट डालने वाली नेता मान रहा है। इतना ही नहीं अब तक कई बार माया के अल्प विदेशी ज्ञान पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। ऐसे में वह किस योग्यता के आधार पर देश के प्रधानमंत्री बनने का दावा कर रही हैं। इतना तो तय है कि माया के पीएम बनने पर देश का बंटाधार होना तय है।
अमेरिकी पत्रिका न्यूजवीक के ताजा अंक में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती को समाज में फूट डालने वाली बड़ी नेता और ‘ओबामा का विलोम बताया है। पत्निका में कहा गया है कि इसमें कोई शक नहीं कि मायावती और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा में कुछ बातें एक समान भी हैं। मायावती भारत में उम्रदराज नेताओं की तुलना में अपेक्षाकृत युवा कही जा सकती हैं और वह अमेरिकी चुनाव से पहले के ओबामा के मुकाबले स्थापित व्यवस्था के लिए कहीं बड़ा खतरा और उनसे कहीं बड़ी ‘छुपी रुस्तमज् साबित हो सकती हैं। पत्रिका ने कहा कि ओबामा ने नस्ल, परम्परागत विचारधारा और अमेरिका में भ्रष्ट हथकंडों से ऊपर उठने वाली राजनीति का वादा किया था जबकि मायावती की ताकत वर्चस्ववादी वर्ग संघर्ष की बुनियाद पर ही टिकी है।
पत्रिका ने विदेश मामलों में मायावती के अल्पज्ञान की ओर भी इशारा किया है। ओबामा की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की बेहतरीन समझ के सामने मायावती कहीं नहीं ठहरतीं। न्यूजवीक का कहना है कि मायावती विदेशी मामलों पर बोलती ही नहीं हैं और जब वे इस बारे में कुछ बोलती भी हैं तो इस कदर अस्पष्ट होती हैं जिसका कोई मतलब नहीं निकाला जा सकता। न्यूजवीक ने पुराने भाषणों और फैसलों के आधार पर मायावती को समाज में फूट डालने वाली नेता बताया है। इसके लिए सरकारी नौकरी में एक हजार अगड़ी जाति के कर्मचारियों के स्थान पर दलितों की नियुक्ति के फैसले का हवाला दिया गया है। इसी तरह दलित आबादी वाले गांवों को अंबेडकर ग्राम घोषित कर इनके विकास को ज्यादा तरजीह देना तथा अगड़ी जातियों वाले गांवों की उपेक्षा का भी उदाहरण दिया गया है। पत्रिका के अनुसार उनके अब तक कार्यकालों में इस तरह के तमाम भेदभावपूर्ण फैसलों के बावजूद उत्तर प्रदेश में दलितों की स्थिति में ना के बराबर सुधार आया है।

Thursday, April 16, 2009

अरहर 70, चीनी 32 रुपए किलो और महंगाई 0%!

बाजार में रोजमर्रा की वस्तुओं के दाम भले ही आसमान छू रहे हैं, लेकिन महंगाई दर शून्य के और करीब पहुंचती जा रही है। जनता महंगाई की मार से बेहाल है और सरकार आंकड़ों के भरोसे अपनी पीठ ठोक रही है।
सरकार भले ही अपने मुंह मियां मिठ्ठू बन ले, लेकिन जनता इसे कैसे भूल सकती है। किसी राजनीतिक दल ने चुनाव में भले ही इसे मुद्दा नहीं बनाया हो, लेकिन जनता वोट देते वक्त इसे जरूर ध्यान में रखेगी।
चार अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह में म्रुास्फीति घटकर 0.18 फीसदी रह गई, इसके उलट फल एवं सब्जियों, दाल, ईंधन और खाद्य तेलों के महंगा होने का क्रम जारी रहा। खाद्य वस्तुओं में फल एवं सब्जियों, अरहर, उड़द, मूंग और चना आलोच्य सप्ताह में महंगे हुए। म्रुास्फीति का पिछले तीन दशकों में यह सबसे न्यूनतम स्तर है।
बहरहाल आंकड़ों में महंगाई का लगातार गिरना और वास्तविकता में खाद्य पदार्थो के दामों का आसमान छूना, जनता के साथ मजाक नहीं तो क्या है।

Thursday, April 2, 2009

Wednesday, March 18, 2009

राजनीति का बेशर्मी से पुराना नाता रहा है


राजनीति की बेशर्मी से सांठगांठ कोई नई बात नहीं है। जैसे-जैसे राजनीति शुरू होती है, बेशर्मी खुद ही धीरे-धीरे प्रवेश करने लगती है। उसका (बेशर्मी) माध्यम राज ठाकरे, बाल ठाकरे, आजम खां जसे कोई भी नेता हो सकते हैं। इस बार माध्यम बने हैं वरुण गांधी। जो देश में काफी सम्मानित गांधी परिवार के ‘सम्मानितज् सदस्य हैं। साथ ही जानवरों के हक में आवाज उठाने वाली मेनका गांधी के पुत्र हैं।
यहां सवाल उठता है कि राजनीति के क्षेत्र में आए दिन होने वाली इस तरह की भड़काऊ बयानबाजी का क्या उद्देश्य है? इसके जवाब के लिए वरुण गांधी की अभी तक की राजनीति और उनके राजनीतिक प्रभाव का अध्ययन करना होगा। वरुण गांधी के पिता संजय गांधी को 1970 से 80 के बीच के समय का काफी तेजतर्रार नेता माना जाता था। वह मारुति की स्थापना के समय विवादित हुए। साथ ही दिल्ली की स्लम बस्तियों की सफाई और नसबंदी कानून को लेकर काफी विवादों और चर्चा में भी रहे। अपने समय में संजय गांधी काफी चर्चित थे तो इमरजेंसी ने उन्हें काफी ताकतवर भी बना दिया था। अगर वरुण गांधी की पिता से तुलना की जाए, तो किसी भी मामले में वह उनके आस-पास भी नहीं दिखाई देते। तुलनात्मक रूप से देश में वह अधिक चर्चा में नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी ने भी उन्हें एक क्षेत्र में सीमित कर दिया है।
ऐसे में वरुण गांधी में निराशा का होना भी स्वाभाविक भी है। इसके विपरीत उनके भाई (तहेरे) राहुल गांधी को हर जगह तवज्जो मिलती है। इसलिए शिखर पर पहुंचने की जल्दी ने शायद वरुण को यह भड़काऊ बयान देने के लिए मजबूर किया हो। बहरहाल, अगर वरुण गांधी ने इस तरह के भड़काऊ बयान दिए हैं, तो वह काफी हद तक अपने उद्देश्य में कामयाब भी हुए हैं। मीडिया में मिली इतनी चर्चा (नकारात्मक) के बाद अब देश भर में उन्हें हर कोई जान गया होगा।
वरुण गांधी के लिए मेरी सलाह है कि संयम से काम लें। शिखर पर पहुंचने के लिए अभी काफी उम्र बाकी है।

Monday, March 16, 2009

पत्रकारिता में सभी उम्मीद खत्म नहीं होनी चाहिए

समाचारों में बरकरार है पाठकों की रुचि : रिपोर्ट


पत्रकारिता जगत की हालत भले ही खराब हो लेकिन अभी उम्मी कायम रहनी चाहिए। फिलहाल समाचारों में पाठकों की रुचि कम होती नहीं दिख रही है।
न्यूयॉर्क में प्रोजेक्ट फार एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म ने न्यूज मीडिया की स्थिति पर अपनी छठीोर्षिक रिपोर्ट में कहा है कि कई समाचार संगठनों का व्यासायिक ढांचा टूटता नजर आ रहा है लेकिन इस बात के कम ही संकेत हैं कि पाठकों की समाचारों में रुचि कम हो रही है। पिछले कुछ महीनों में चार समाचारपत्र कंपनियों कारण संरक्षण की मांग की और डेनर में राकी माउंटेन ने अपना प्रकाशन बं कर यिा। लेकिन जब ऑनलाइन पाठकों की संख्या की ृष्टि से ेखा गया तोी न्यूयॉर्क टाइम्स औरोशिंगटन पोस्ट के पाठकों की संख्या अब तक र्साधिक पाई गई। प्रोजेक्ट निेशक टाम रोसेंसियल ने यह जानकारीी। रिपोर्ट में बताया गया है कि शीर्ष 50 ऑनलाइन न्यूज ेबसाइटों के पाठकों की संख्या में र्ष 2008 में 27 फीसी का इजाफा हुआ। उन्होंने कहा कि यह उद्योग म नहीं तोड़ रहा है। यह उद्योग आधार से उखड़ने की स्थिति में है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इंटरनेट के अलाा केबल न्यूज एक ऐसा सेक्टर है जो तरक्की कर रहा है और इसका श्रेय राष्ट्रपति चुना को मुख्य रूप से जाता है।

Monday, March 2, 2009

मीडिया और जान पहचान
मीडिया की दुनिया भी अजीब है...बुद्धजीवी लोगों की दुनिया... दूसरों को सीख देनेवालों की दुनियादूसरों को सिखाने वाले क्या ख़ुद सीख पाते हैं ?सिद्धांत और व्यवहार में अन्तर ... दूसरी ओर भाई भतीजा वाद ...मीडिया की दुनिया वही है जहाँ कोई नहीं पूछता आपका ज्ञानबस आपकी हो कोई जान या पहचान।संजीत

Saturday, February 7, 2009

गरीब की बेटी और भारत

गरीब की बेटी और भारत

मुंबई हमला



लेख का शीर्षक पढ़कर शायद आप हैरत में होंगे कि गरीब की बेटी और भारत में क्या ताल्लुक हो सकता है? अगर हम मुंबई हमलों के बाद के हालातों पर गौर करें तो दोनों में काफी हद समानता है। भारत में जब किसी गरीब की बेटी का बलात्कार होता है, तो न्याय के लिए भटक रहे ‘गरीब बापज् से हर कोई सबूत मांगता है। ‘गरीब बापज् सबूत देता-देता मर जाता है, लेकिन हर बार सबूत कम ही पड़ जाते हैं। और दबंग खुलेआम घूमते रहते हैं। एेसा भारत में अक्सर होता है, लेकिन अब दुनिया में भारत के साथ यही हो रहा है।
मुंबई हमले को लगभग ढाई माह से भी अधिक समय बीत चुका है और भारत अभी तक सबूत पेश कर रहा है। पाकिस्तान को मुंबई पर आतंकवादी हमले के लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए हर सबूत ‘नाकाफीज् सबूत हो रहा है। अमेरिका सहित पूरी दुनिया यह तो मानती है कि इसमें पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों का हाथ है और वहीं की जमीन का प्रयोग किया गया। लेकिन अमेरिका सहित पूरी दुनिया को यह मंजूर नहीं कि भारत पाकिस्तान के आतंकी शिविरों पर कोई सैन्य कार्रवाई करे।
यहां सवाल उठता है कि क्या भारत उस ‘गरीब बापज् की तरह कमजोर है। इसका जवाब नकारात्मक ही होगा, लेकिन हम हमेशा कमजोर ही क्यों नजर आते हैं। क्यों हमें ही हर बार सबूत देना पड़ता है। क्या वर्ष 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमले के बाद इराक और अफगानिस्तान पर हमला करने से पहले अमेरिका से किसी ने सबूत मांगा था। आतंकवाद के खिलाफ जंग के नाम पर अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक में सैकड़ों आतंकियों का सफाया कर दिया, वो बात अलग है कि इस ‘जंगज् में लगभग छह लाख आम इराकियों को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। अफगानिस्तान में भी बड़ी संख्या में बेगुनाह मारे गए। अफगानिस्तान में अमेरिकी जंग अभी तक जारी है और पाकिस्तान में आतंकी शिविरों पर भी नाटो देशों की सेनाएं हमले कर रही हैं। इस सबके बावजूद अमेरिकी सैन्य कार्रवाई के खिलाफ दुनिया में किसी ने आवाज उठाने की हिमाकत नहीं की।
वहीं, भारत की तुलना में काफी छोटे माने जाने इजरायल ने फलस्तीन पर हमला करने से पहले किसी को सबूत देने की जरूरत ही नहीं समझी। इजरायल के बारे में तो यह तक कहा जाता है, ‘जब फलस्तीन या गाजा पट्टी की तरफ से एक पत्थर आता है तो इजरायल की तोपें फलस्तीन पर गोले बरसाने लगती हैं।ज् यहां इसका उल्लेख करना भी जरूरी है कि इजरायल अपने नागरिकों की सुरक्षा के प्रति काफी सतर्क है। मुंबई हमले के दौरान जब कुछ इजरायली नागरिक आतंकियों के चंगुल में फंसे हुए थे, तब इजरायल ने आतंकवादियों से निबटने के लिए अपने कमांडो भेजने का प्रस्ताव भारत सरकार के पास रखा था। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी किरकिरी होने के डर से भारत ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।
लब्बोलुआब यही है कि मुंबई हमले के संबंध में भारत सरकार विदश नीति के स्तर पर अभी तक पूरी तरह विफल साबित हुई है। मुंबई पर हमला करके आतंकवादियों ने भारत की सुरक्षा में छेद किया। तो विदेश नीति के स्तर पर भी भारत की स्थिति ‘फिर वही ढाक के तीन पांतज् वाली रही। मुंबई हमले के ढाई माह बाद भी भारत अभी तक सबूत ही मुहैया करा रहा है। जबकि एक मात्र जिंदा सबूत (आतंकी) आमिल अजमल कसब को पाकिस्तान अपने देश का नागरिक होने से इनकार कर रहा है।
भारत अभी तक सैन्य ताकत के मामले में पाकिस्तान से काफी मजबूत माना जाता रहा है, दुनिया भी इसको हमेशा भी स्वीकार करती आई है। लेकिन मुंबई हमले जसी किसी भी घटना के बाद भारत कमजोर सा ही नजर आता है। भारत की समूची ताकत बेमतलब नजर आती है। इन हालातों में भारत का ‘परमाणु शक्तिज् होने का दावा ‘हाथी के दांतज् की तरह नजर आता है। आखिर हम कब तक दुनिया में इसी तरह ‘kamajor बने रहेंगे।