Wednesday, April 29, 2009

बोफोर्स का सबक-बड़े अपराध करो और मौज करो


छोटे-छोटे अपराधों के लिए हर साल लाखों कैदियों को देश की जेलों में ठूंसा जाता है। लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई को लूटने वाले बड़े अपराधी मौज करते देखे जाते हैं। इसलिए बोफोर्स घोटाला छोटे अपराधियों के लिए सबक ही है कि करो तो बड़े घोटाले। उसके बाद अदालत में मामला, फिर राजनीति और मीडिया में छा जाना। राजनीति में कामयाब रहे तो बरी या फिर कुछ सालों की सजा।
जैसा कि बोफोर्स घोटाले में हुआ। 80 के दशक में गरीब भारत की जनता की गाढ़ी कमाई के 150 अरब रुपए रिश्वत के रूप में दे दिए गए। इटली के ओतावियो क्वात्रोच्चि, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, तीन हिन्दुजा बंधु, रक्षा सचिव आदि कई लोग आरोपी भी बने। लेकिन सरकार के सीबीआई नामक हथियार के सहारे धीरे-धीरे सभी बरी भी होते गए। सीबीआई ने एक मात्र मुख्य आरोपी माने जा रहे क्वात्रोच्चि को लगभग पाक-साफ करार दे दिया। जिसका खुलासा हाल ही में हुआ। यहां सवाल उठता है कि अगर कोई भी दोषी नहीं है तो देश का 150 अरब रुपया कहां गया।
ऐसे में बोफोर्स घोटाले से छोटे अपराधियों को सबक लेना चाहिए कि बड़े अपराधों को ही तरजीह दें। कोई दिक्कत हो तो किसी भी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लें। अगर कांग्रेस में शामिल हों तो कुछ बेहतर रहेगा। फिर किसी भी दल में राजनीति का विकल्प हमेशा के लिए खुल जाएगा।














Friday, April 24, 2009

बिहारीपन को बेचा अब खरीद रहे हैं

बिहार के बिहारीपन को बेचने के बाद प्रकाश झा अब उसे खरीदने पहुंच गए हैं। पश्चिमी चंपारण से लोजपा उम्मीदवार झा को भले ही पार्टी ने लालू के साले के विरोध के बावजूद टिकट दिया हो, लेकिन अपहरण, गंगाजल बनाने वाले प्रकाश भी चुनाव जितने के लिए उन्हीं नेताओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। जब से झा ‘सामाजिक न्याय रथज् पर सवार हुए हैं उन्हें बिहार की संवेदना, उसका पिछड़ापन, गरीबी, अत्याचार नजर नहीं आ रहे हैं। यहां मकसद साफ है। वह सब करने में कोई गुरेज नहीं, जिसका लगातार विरोध करते रहे हैं। सत्ता होती ही ऐसी है। लोगों को अंधा बना देती है। जिनके पास है उसे भी और जो उसकी तलाश में हैं उसे भी।
प्रकाश के कार्यालय पर पुलिस छापे से बरामद दस लाख रुपए उनकी उस साफ स्वच्छ फिल्मी छवि को झूठलाने के लिए काफी है, जिसे पर्दे पर फिल्माकर वह काफी वाहवाही लूट चुके हैं। दरअसल पर्दे का सच, वास्तविक जिंदगी में सच हो यह जरूरी नहीं है। यही कारण है कि देश की गरीबी, मध्यम वर्ग का शोषण और बदहाल जिंदगी को सिनेमा के पर्दे पर बखुबी उतारने वाले कलाकार जब देश की सर्वोच्च संसद में पहुंचते हैं तो उन्हें शायद यह सब दिखाई देना बंद हो जाता है। वह न तो संसद में सवाल पूछते हैं, न ही बैठक में उपस्थित होते हैं। उन्हें गरीबी केवल फिल्मों में ही नजर आता है। अपनी अदाकरी को दमदार बनाने के लिए ये कलाकार भले ही गरीबों के घरों में जाते हों, उनके साथ समय बिताते हों, लेकिन जब उनका भला करने की बात आती है तो उन्हें वह सब नजर नहीं आता है, जिन दिक्कतों से गरीबों को रोजाना रू-ब-रू होना पड़ता है। यह ठीक वैसा ही है जसा राहुल गांधी करते हैं। गरीबों के घर जाते हैं। उन्हें लंबे चौड़े आश्वासन देते हैं और बाद में भूल जाते हैं। उनका उद्धार कोई एनजीओ करता है। चाहे वह कलावती हो या फिर छत्तीसगढ़ और बुंदेलखंड के गांव में बिताई गई रात।
आखिर यह कैसी संवेदना है, जिसे पर्दे पर तो उतारने के लिए पूरी मेहनत की जाती है। यह कहें कि अपने अभिनय से जितनी भी इमानदारी कर सकते हैं, कलाकार करते हैं। क्या इसे कलाकारों की संवेदनहीनता नहीं कहेंगे, जो पर्दे पर तो सब अच्छा करने के दंभ भरते हैं। क्या यह देश के उन हजारों लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है। उन कलाकारों का जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता है, वह अगर देश की सर्वोच्च संसद में पहुंचते हैं तो उनका वह खोखलापन सामने आ जाता है, जिसे पर पर्दे पर बखुबी निभाते हैं। इस तरह के नेताओं के राजनीति में प्रवेश का लगातार विरोध होता रहा है। लेकिन राजनीतिक दलों की जिताऊ उम्मीदवारों की खोज फिल्मी कलाकारों पर ही जाकर रुकती है। क्योंकि जनता को वास्तविक मुद्दों से दूर रखने के लिए इनके लटके-झटके ज्यादा कारगर होते हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर हम उन नेताओं को क्यों चुने, जिन्हे चुनावी मौसम में ही हमारी याद आती है। मौसम खत्म यह भी मेंढक की तरह नदारद हो जाते हैं। चाहे वह अमिताभ हों, गोविंदा हों या फिर कोई और। अब इस कड़ी में कोई प्रकाश झा न जुड़ जाए।
मृगेंद्र पांडेय

Wednesday, April 22, 2009

माया को पीएम बनाओ, देश का बंटाधार करो

सोशल इंजीनियरिंग के बल पर यूपी की सत्ता पर काबिज होने वाली मायावती विदेशी मीडिया को फूटी आंख नहीं सुहाती हैं। भले ही माया सर्वसमाज की बात करने का दावा करें लेकिन विदेशी मीडिया उन्हें समाज में फूट डालने वाली नेता मान रहा है। इतना ही नहीं अब तक कई बार माया के अल्प विदेशी ज्ञान पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। ऐसे में वह किस योग्यता के आधार पर देश के प्रधानमंत्री बनने का दावा कर रही हैं। इतना तो तय है कि माया के पीएम बनने पर देश का बंटाधार होना तय है।
अमेरिकी पत्रिका न्यूजवीक के ताजा अंक में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती को समाज में फूट डालने वाली बड़ी नेता और ‘ओबामा का विलोम बताया है। पत्निका में कहा गया है कि इसमें कोई शक नहीं कि मायावती और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा में कुछ बातें एक समान भी हैं। मायावती भारत में उम्रदराज नेताओं की तुलना में अपेक्षाकृत युवा कही जा सकती हैं और वह अमेरिकी चुनाव से पहले के ओबामा के मुकाबले स्थापित व्यवस्था के लिए कहीं बड़ा खतरा और उनसे कहीं बड़ी ‘छुपी रुस्तमज् साबित हो सकती हैं। पत्रिका ने कहा कि ओबामा ने नस्ल, परम्परागत विचारधारा और अमेरिका में भ्रष्ट हथकंडों से ऊपर उठने वाली राजनीति का वादा किया था जबकि मायावती की ताकत वर्चस्ववादी वर्ग संघर्ष की बुनियाद पर ही टिकी है।
पत्रिका ने विदेश मामलों में मायावती के अल्पज्ञान की ओर भी इशारा किया है। ओबामा की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की बेहतरीन समझ के सामने मायावती कहीं नहीं ठहरतीं। न्यूजवीक का कहना है कि मायावती विदेशी मामलों पर बोलती ही नहीं हैं और जब वे इस बारे में कुछ बोलती भी हैं तो इस कदर अस्पष्ट होती हैं जिसका कोई मतलब नहीं निकाला जा सकता। न्यूजवीक ने पुराने भाषणों और फैसलों के आधार पर मायावती को समाज में फूट डालने वाली नेता बताया है। इसके लिए सरकारी नौकरी में एक हजार अगड़ी जाति के कर्मचारियों के स्थान पर दलितों की नियुक्ति के फैसले का हवाला दिया गया है। इसी तरह दलित आबादी वाले गांवों को अंबेडकर ग्राम घोषित कर इनके विकास को ज्यादा तरजीह देना तथा अगड़ी जातियों वाले गांवों की उपेक्षा का भी उदाहरण दिया गया है। पत्रिका के अनुसार उनके अब तक कार्यकालों में इस तरह के तमाम भेदभावपूर्ण फैसलों के बावजूद उत्तर प्रदेश में दलितों की स्थिति में ना के बराबर सुधार आया है।

Thursday, April 16, 2009

अरहर 70, चीनी 32 रुपए किलो और महंगाई 0%!

बाजार में रोजमर्रा की वस्तुओं के दाम भले ही आसमान छू रहे हैं, लेकिन महंगाई दर शून्य के और करीब पहुंचती जा रही है। जनता महंगाई की मार से बेहाल है और सरकार आंकड़ों के भरोसे अपनी पीठ ठोक रही है।
सरकार भले ही अपने मुंह मियां मिठ्ठू बन ले, लेकिन जनता इसे कैसे भूल सकती है। किसी राजनीतिक दल ने चुनाव में भले ही इसे मुद्दा नहीं बनाया हो, लेकिन जनता वोट देते वक्त इसे जरूर ध्यान में रखेगी।
चार अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह में म्रुास्फीति घटकर 0.18 फीसदी रह गई, इसके उलट फल एवं सब्जियों, दाल, ईंधन और खाद्य तेलों के महंगा होने का क्रम जारी रहा। खाद्य वस्तुओं में फल एवं सब्जियों, अरहर, उड़द, मूंग और चना आलोच्य सप्ताह में महंगे हुए। म्रुास्फीति का पिछले तीन दशकों में यह सबसे न्यूनतम स्तर है।
बहरहाल आंकड़ों में महंगाई का लगातार गिरना और वास्तविकता में खाद्य पदार्थो के दामों का आसमान छूना, जनता के साथ मजाक नहीं तो क्या है।

Thursday, April 2, 2009