Sunday, June 28, 2009

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद ने लुटाए 14 करोड़

मोहित पाराशर

भले ही जनता बिजली के लिए सड़कों पर उतरने पर आमादा है। लेकिन देश के माननीय बिजली पर जनता के करोड़ों रुपए लुटा रहे हैं। बीते साल राष्ट्रपति भन, प्रधानमंत्री के आधिकारिक आास और संस का बिजली का कुल बिल करीब 14 करोड़ रुपए रहा। सूचना का अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी में खुलासा हुआ है कि संस से 2008 में 6.25 करोड़ रुपए बिजली के बिल का भुगतान किया गया। वहीं, राष्ट्रपति भन का बिल 6.70 करोड़ रुपए रहा। इसके बा प्रधानमंत्री आास आता है जहां जनरी से सिंबर 2008 के बीच बिजली के बिल का 50.35 लाख रुपए भुगतान किया गया।
लिचस्प रूप से, राष्ट्रपति भन और प्रधानमंत्री कार्यालय का बिजली का बिल बीते तीन वर्षो में सबसे अधिक रहा। मुंबई के निासी आरटीआई ओक चेतन कोठारी ने कहा कि तुलनात्मक रूप से यह बीते तीन र्ष में आ किए गए कुल बिलों का आधा है। उन्होंने बीते चार र्ष में बिजली की यूनिट में हुई खपत और बिजली के लिए खर्च की गई राशि तथा आपातकालीन बिजली कटौती की स्थिति में उपलब्ध प्राधानों से जुड़ी जानकारी चाही थी।
प्रधानमंत्री आास का 2005 में पूरे साल का बिल 7.48 लाख, 2006 में 15.16 लाख और 2007 में 12.39 लाख रुपए रहा था। र्ष 2005 में राष्ट्रपति भन का बिल 3.20 करोड़ रुपए, 2006 में चार करोड़ और 2007 में 4.34 करोड़ रुपए रहा। इसमें धीरे-धीरे बढ़ोत्तरी हुई और र्ष 2008 में यह छह करोड़ रुपए से अधिक हो गया। जाब के मुताबिक प्रधानमंत्री के आास और कार्यालय के लिए पृथक मीटर नहीं है। राष्ट्रपति भन के बिल में प्रेसीडेंट एस्टेट का बिल भी शामिल है। संस के बिल में संस भन, पुस्तकालय की इमारत और एनेक्सी का बिल शामिल है।

Friday, June 26, 2009

खुशखबरी... अब छात्रों को नहीं करनी पड़ेगी आत्महत्या


आम तौर पर जनवरी-फरवरी के महीने में दसवीं की परीक्षा का भूत विद्यार्थियों के साथ ही अभिभावकों पर भी सवार हो जाता है। घर में पूरी तरह से तनाव का माहौल बन जाता है।


देश में शिक्षा और उसके स्तर में सुधार के बारे में बहस तो कई बार हो चुकी है लेकिन कोई सार्थक ठोस कदम नहीं उठाया गया। उच्च शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जाता है लेकिन सबसे ज्यादा सुधार की आवश्यकता स्कूली शिक्षा प्रणाली में है, जिस पर बच्चों का भविष्य पूरी तरह निर्भर करता है। इस दृष्टि से प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में गठित समिति ने जो रिपोर्ट दी है, उसमें दसवीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त कर मूल्यांकन की वैकल्पिक व्यवस्था की बात की गई है। यह निश्चय ही एक ऐतिहासिक कदम होगा और छात्र-छात्राओं को बोर्ड के हौव्वे से बचाने का काम करेगा। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। आम तौर पर जनवरी-फरवरी के महीने में दसवीं की परीक्षा का भूत विद्यार्थियों के साथ उनके माता-पिता पर भी सवार हो जाता है। घर में पूरी तरह से तनाव का माहौल बन जाता है। इसका सबसे प्रमुख कारण है कि आजकल परीक्षा में प्राप्तांकों का महत्व बहुत बढ़ गया है। उसी के आधार पर विद्यार्थी की आगे पढ़ाई के बारे में तय होता। नई व्यवस्था से परीक्षा के दौरान तनाव और बाद में कम अंक आने पर विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या जसी प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। रिपोर्ट के अनुसार ज्ञान अर्जन पीड़ादायक न हो, इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए। बोर्ड की परीक्षा समाप्त करना इस दिशा में पहला कदम होगा। सरकार अब इस बारे में राज्य सरकारों, परीक्षा बोर्डो और विद्यार्थियों के माता-पिता से सलाह लेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार के सौ दिन के एजेंडे में इसे मूर्तरूप दिया जा सकेगा। यशपाल समिति ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद को समाप्त कर राष्ट्रीय उच्च शिक्षा और शोध आयोग बनाने का सुझाव दिया है। यह तो बहस का विषय है, जो लंबा खिंच सकता है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आजादी के 62 वर्ष हो रहे हैं और अभी शिक्षा की वही व्यवस्था लागू है जो लार्ड मैकाले ने 1835 में शुरू की थी। हम लगभग पौने दो सौ साल से अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली में उलङो हुए हैं। कहने के लिए हमारी अपनी व्यवस्था नहीं है। अब एक महत्वपूर्ण सुझाव सामने आया है तो इसके क्रियान्वयन के लिए तुरंत प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए, क्योंकि ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।

Tuesday, June 16, 2009

यूपीए सरकार की भाषाई अक्षमता

मुंबई हमले के बाद सरकार के गरम तेवर अब नरम पड़ चुके हैं। जमात उद दावा हाफिज मोहम्मद सईद की रिहाई के बाद मनमोहन सिंह का लोकसभा में यह कहना कि हमारे पास बातचीत के अलावा विकल्प नहीं है, इस ओर इशारा भी करते हैं। चुनाव जीतने के बाद सरकार द्वारा मुंबई हमले पर अपनाया गया लचर रवैया बताता है कि ‘तेवरों में वह गर्मी चुनावों तक के लिए ही थी। बहरहाल सरकार को यह सोचना होगा कि रिहाई के बाद हाफिज सईद मस्जिद में नमाज तो नहीं पड़ेगा। अब भारत एक और मुंबई हमला ङोलने के लिए तैयार रहे।

महेंद्र सिंह

आम चुनाव में अप्रत्याशित रूप से मजबूत जनादेश पाकर आत्ममुग्ध हो चुकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार आने वाले पांच सालों में देश को कैसी सरकार देने जा रही है। इस पर लोग अपने अपने-अपने तरीके से विचार प्रकट कर रहे हैं। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर यूपीए सरकार अपनी भाषाई अक्षमता स्पष्ट कर चुकी है। हाल में पाकिस्तान की अदालत ने मुंबई हमले के सूत्रधार हाफिज सईद को यह कहते हुए रिहा कर दिया कि सरकार आरोपी के खिलाफ कोई ऐसा सबूत या दस्तावेज पेश करने में विफल रही है जिससे मुंबई हमले में उसकी संलिप्तता का पता चलता हो। खर भारतीय सरजमीं पर आतंक का नंगा नाच प्रायोजित करने वाले मसूद अजहर और हाफिज सईद के खिलाफ पाकिस्तान सरकार के सख्त रुख अख्तियार करने की उम्मीद मनमोहन सिंह और कुछ कथित बुद्धिजीवी स्तंभकार ही कर सकते हैं जो चौबीसों घंटे पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करते रहते हैं। दिलचस्प है कि हाफिज सईद की गिरफ्तारी के बाद भारत सरकार की प्रतिक्रया सिर्फ ‘दुर्भाग्यपूर्णज् पर सीमित होकर रह गई। गरिमा के मानस अवतार शालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उस रात को नींद आई कि नहीं आई। ये तो वही जानें। लेकिन मुंबई हमले में अपने परिजनों को खोने वाले भारतीय, शहीद पुलिस अधिकारियों, सुरक्षा बलों की विधवाओं और बच्चों के साथ हर उस भारतीय को बैचैनी जरूर हुई होगी जिसने 72 घंटे तक मुंबई के जनजीवन को थमते देखा और महसूस किया। सरकार भी वही है। प्रधानमंत्री भी मनमोहन सिंह हैं। फिर अचानक भारतीय नेतृत्व के तेवर इतने नरम क्यों हो गए। ऐसा लगा कि भारत से बहुत दूर कहीं कोई घटना घट गई हो और भारत सरकार को राजनयिक शिष्टाचार के नाते कोई प्रतिक्रया देनी थी। हमारे विदेश मंत्री ने यह कहकर रस्म अदायगी कर दी कि हाफिज सईद की रिहाई दुर्भाग्यपूर्ण है। सही है। हम इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है। वैसे भी पाकिस्तान आजकल स्वात और वजीरिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिका के पैसे से लड़ाई लड़ रहा है। हमें शिकायत पाकिस्तान से नहीं है। हमें भारत सरकार से भी शिकायत नहीं होती अगर उसने चीख चीख कर मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को हर हाल में न्याय के कटघरे में खड़ा करने की बात न की होती। मनमोहन सिंह जी ने इसके बाद संसद में एक और धमाका कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारे पास पाकिस्तान से बाचचीत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। आम भारतीय को यह बात समझ में नहीं आई कि मुंबई हमले से लेकर आम चुनाव के दौरान मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के लिए इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई। क्या यह महज संयोग है कि प्रधानमंत्री संसद में पाकिस्तान के साथ बातचीत का संकेत देते हैं और दो चार दिन बाद ही ओबामा के दूत बिलियम बर्न्‍स भारत आकर मनमोहन सिंह को ओबामा के नाम की पाती देते हैं। लगे हाथ बर्न्‍स यह भी कह देते हैं कि कश्मीर के मामले में वहां के लोगों की बात सुनी जानी चाहिए। अब बर्न्‍स को कौन बताए कि कश्मीर में अभी कुछ माह पहले अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में विधानसभा चुनाव हुए हैं और जनता ने अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भारतीय लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की है। हां अगर बर्न्‍स आईएसआई के पैसे पर पेट पालने वाले हुर्रियत के नेताओं को ही कश्मीरियों की आकांक्षाओं का प्रतीक मानती है तो ये उनकी समस्या है। एक और दिलचस्प बात है कि जब भी कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं की बात होती है तो अमेरिका, ब्रिटेन और भारतीय नेतृत्व को भी पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर की याद नहीं आती जहां के लोग यह भी नहीं जानते कि लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है। इसके लिए हमारे देश का धर्मनिरपेक्ष मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना भारतीय नेतृत्व। हमारे देश के पत्रकार किसी बर्न्‍स या मिलीबैंड से क्यों नहीं पूंछते कि कश्मीरी अवाम की आकांक्षा क्या भारतीय कश्मीर तक ही सीमित है। सवाल तो अरुंधती राय से भी पूछा जा सकता है कि कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन को लेकर सेना पर आरोप लगाने से पहले उन्हें मुजफ्फराबाद में पिछले सात दशकों से लोकतंत्र के साथ हो रहा बलात्कार क्यों नहीं दिखता। क्या हम मान लें कि विलियम बर्न्‍स ओबामा के उस प्लान को आगे बढ़ाने के लिए आए थे जो उन्होंने कश्मीर विवाद को हल करने के लिए अमेरिकी मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत किया था। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि बर्न्‍स के बाद अगले महीने जुलाई में अमेरिकी की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आ रहीं हैं। कश्मीर जसे पुराने अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत ही एक मात्र विकल्प है इससे शायद ही कोई इनकार करे लेकिन बातचीत की मेज पर जाने के पहले बातचीत का माहौल तो बने। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को अपने हनीमून पीरियड में सब कुछ अच्छा लग रहा होगा लेकिन ऐसा हर भारतीय के साथ नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व को यह बात समझ लेनी चाहिए कि खुली हवा में सांस ले रहा हाफिज सईद मस्जिद में जाकर इबादत नहीं कर रहा होगा बल्कि वह भारत में एक और आतंकी मंजर की पटकथा लिखने में जी जान से जुट गया हो गया क्योंकि उसकी दुकान इसी से चलती है। मनमोहन जी मुंबई हमले के बाद उभरे आम जनता के आक्रोश को याद करिए और हनीमून सिंड्रोम से जल्दी निकलिए।

Monday, June 15, 2009

दिल्ली तक पहुंचे नक्सली

नक्सलवादी अपने को भूमिहीन मजदूरों का हितैषी बताते हैं और शोषण मुक्त समाज की स्थापना की बात करते हैं। लेकिन अब ये आम लोगों से पैसे भी वसूलने लगे हैं।

रियाणा के कुरुक्षेत्र से पिछले दिनों 17 नक्सलियों की गिरफ्तारी और उनके मुखिया का यह खुलासा कि तीन महीने से छह नक्सली समूह राज्य में सक्रिय हैं, एक बहुत बड़े खतरे की ओर संकेत करता है। पुलिस ने यह भी माना है कि राज्य के पानीपत, सोनीपत, रोहतक, जींद, कैथल, नरवाना और हिसार में उनका नेटवर्क फैला हुआ है। हैरानी यह है कि झारखंड, बिहार, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ होते हुए नक्सली यहां तक पहुंच गए और सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक भी नहीं लगी। झारखंड में अभी हाल में नक्सलियों ने दो जबदस्त हमले किए जिसमें पुलिस और सीआरपीएफ के 21 जवान शहीद हो गए और कई घायल होकर अस्पताल में मौत से लड़ रहे हैं। नक्सलवादियों का राजधानी के इतने निकट पहुंचना पूरे देश में लाल गलियारा बनाने की साजिश का ही एक हिस्सा है। 42 वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में किसान विद्रोह से शुरू हुआ नक्सलवाद अब तक देश के 630 में से 180 जिलों में फैल चुका है। जबकि 2001 में नक्सली हिंसा से केवल 56 जिले प्रभावित थे। इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक दशक से भी कम समय में वह कितनी तेजी से बढ़ा है। नक्सलवादी अपने को भूमिहीन मजदूरों का हितैषी बताते हैं और शोषण मुक्त समाज की स्थापना की बात करते हैं। ये अधिकतर जमीदारों पर हमले करते हैं, लेकिन अब ये आम लोगों से पैसे भी वसूलने लगे हैं। इधर पुलिस और सुरक्षाबलों पर इनके हमले बढ़ गए हैं। पिछले वर्ष नक्सलियों-माओवादियों ने पूरे देश में एक हजार से अधिक हमले किए। झारखंड में तो इनकी जड़ें इतनी गहरी हो गई हैं कि विभिन्न राजनीतिक दलों को भी इनसे खतरा बढ़ गया है। राज्य में मार्च 2006 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद सुनील महतो, 2007 में पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के पुत्र और पिछले वर्ष जेडीयू के विधायक रमेश मुंडा की हत्या माओवादियों ने की। देश के विभिन्न राज्यों में सक्रिय इन गुटों में बीस हजार से अधिक गुमराह युवक-युवतियां शामिल हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने इससे निपटने के लिए दोहरी रणनीति बनाने की घोषणा की है। पहला, प्रभावित क्षेत्रों में विकास सुनिश्चित करने के साथ कानून-व्यवस्था बहाल की जाएगी और दूसरा गुमराह युवकों की यह विश्वास दिलाना कि हिंसा से समस्या हल नहीं हो सकती। नक्सलियों के प्रभाव को देखते हुए तुरंत कदम नहीं उठाए गए तो यह आतंकवाद से भी बड़ा खतरा बन सकता है।
(आज समाज से साभार)

Wednesday, June 10, 2009

भाजपा और संघ की खींचतान सतह पर

पार्टी में नेताओं की दूसरी श्रेणी है, उनमें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसका कद अटल क्या, आडवाणी के बराबर हो। इस संघर्ष में जब पार्टी कमजोर होगी और ऐसे में उसमें संघ का हस्तक्षेप बढ़ेगा।

लोकसभा चुनावों में हार को लेकर भारतीय जनता पार्टी में मचा घमासान और तेज हो गया है। इसका कारण है पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के निकटतम रणनीतिकार सुधींद्र कुलकर्णी द्वारा किए गए कुछ रहस्योद्घाटन। उन्होंने पार्टी की हार के लिए नेतृत्व और संघ को निशाने पर लिया है और कहा है कि दोनों ने आडवाणी को कमजोर और असहाय बनाया। पार्टी के अनेक नेता इस टिप्पणी से बौखला उठे हैं, जिससे साबित होता है कि बात में कुछ दम है। राजनीतिक दलों में असुविधाजनक बयान को निजी विचार कहकर टाल दिया जाता है। भाजपा ने इससे अपने को अलग कर लिया है। आडवाणी भी इससे सहमत नहीं हैं। यह उनकी मजबूरी है। फिर भी लोग यही कहेंगे कि आडवाणी की इसमें कहीं न कहीं सहमति है, क्योंकि कुलकर्णी चुनावों के दौरान पार्टी के ‘वार रूमज् की कमान संभाले हुए थे। ऐसा आदमी अगर कुछ कह रहा है तो उसमें ‘कुछज् तो सच्चाई होगी। जिन्ना प्रकरण में भी कुलकर्णी ने पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए मुसीबत पैदा कर दी थी। चुनाव परिणाम आने के बाद ही पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने दबी जुबान से यह कहना शुरू कर दिया था कि हिंदुत्व के रास्ते से भटकने के कारण ही उसे हार का सामना करना पड़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पार्टी को अपनी मूल विचारधारा पर लौटने के लिए कहा है। वैसे चुनाव अभियान के दौरान भी पार्टी हिंदुत्व के मुद्दे पर भी उलझन में ही रही और कोई स्पष्ट रुख नहीं अपना सकी। वह मुद्दों की तलाश में ही भटकती रह गई। संघ के नेताओं में एक वर्ग ऐसा है जो यह मानता है कि अल्पसंख्यकों का वोट मिले बिना पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती है। कुछ ने तो इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिए हैं। असलियत यह है कि भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष नेतृत्व को लेकर बहुत दिनों से सवाल उठ रहे हैं। अटल के बाद आडवाणी ने संभाला लेकिन अब आगे कौन संभालेगा? इन्हीं सवालों में उलझी पार्टी को जब चुनावों में कांग्रेस के हाथों करारी शिकस्त मिली तो नेतृत्व की यह लड़ाई बाहर आ गई है। पार्टी में नेताओं की दूसरी श्रेणी है, उनमें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसका कद अटल क्या, आडवाणी के बराबर हो। इस संघर्ष में जब पार्टी कमजोर होगी और ऐसे में उसमें संघ का हस्तक्षेप बढ़ेगा। अगर एक बार पार्टी संघ के चक्कर में फंस गई तो उसका बाहर निकलना मुश्किल हो जाएगा और तब उसका राजनीतिक लक्ष्य भी संघ ही निर्धारित करेगा।
(आज समाज से साभार)

Monday, June 8, 2009

महिला आरक्षण के नाम पर धोखा


सभी दलों के समर्थन के बावजूद विधेयक न पारित होना हैरानी में डालता है।
महिला आरक्षण विधेयक पिछले 13 वर्षो से अधर में लटका हुआ है और इसके लिए जिम्मेदार है राजनीतिक दलों में इच्छा शक्ति की कमी। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों का समर्थन होने के बावजूद विधेयक पारित न हो पाना क्या दर्शाता है? यही कि ऊपर से नहीं, लेकिन भीतर ही भीतर हर दल में आरक्षण विरोधी लोग हैं, जो किसी न किसी बहाने विधेयक की राह में रोड़े बना रहे हैं। इसके लिए समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जेडीयू सरीखी पार्टियों को ही क्यों दोष दिया जाए। ये पार्टियां अगर विरोध कर रही हैं तो इनके अपने-अपने तर्क हैं और कम से कम ये खुलेआम विरोध में हैं। लेकिन खामोश रह कर जो विरोध कर रहे हैं उनका क्या इलाज हो सकता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने जब से घोषणा की है कि उसके सौ दिन के एजेंडे में महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाना भी है, तब से यह मामला फिर गरमा गया है। एक नेता ने तो इस पर पहले यह कहा कि अगर वर्तमान स्वरूप में विधेयक पारित हो गया तो वह जहर खा लेंगे लेकिन बाद में पलट गए और कहने लगे कि वे तो चाहते हैं कि महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दे दिया जाए। अगर वे आरक्षण के इतने हिमायती हैं तो 33 प्रतिशत पर ही क्यों नहीं राजी हो जाते। समाज के कमजोर वर्गो का हिमायती बनने वाली समाजवादी पार्टी को भी विधेयक का वर्तमान स्वरूप स्वीकार्य नहीं है। इसी का फायदा उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि वह विधेयक का समर्थन करती है, लेकिन छोटी-छोटी पार्टियों की बात भी सुनी जानी चाहिए। यह एक तरह से मामले को टालने का तरीका है। सबसे हैरानी की बात यह है कि कोई भी दल विधेयक के विरोध में नहीं है, लेकिन जब विधेयक पारित करने की बात आती है तो उसके विरोध में लोग खड़े हो जाते हैं। राष्ट्रहित में यह अच्छा ही होगा कि विधेयक आम राय से पारित हो लेकिन इस पर सहमति बनने की उम्मीद नहीं लग रही है, क्योंकि सभी के संशोधनों को विधेयक में समाहित करना संभव नहीं। राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी है कि वे केवल महिलाओं का हितैषी होने का दिखावा न करें, बल्कि उनके हित के लिए इस विधेयक को पारित कराने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाएं।
(आज समाज से साभार)

Sunday, June 7, 2009

ब्लॉग को आर्कुट से कैसे जोड़ते हैं

ब्लॉगर भाईयों, अगर किसी को यह मालूम है कि अपने ब्लॉग को अपने आर्कुट से कैसे जोड़ते हैं। कृपया बताएं, धन्यवाद।

Thursday, June 4, 2009

असली रंग में आया पाकिस्तान




सईद की रिहाई ने पाकिस्तान के असली सियासी चेहरे को बेनकाब कर दिया है।

सुरक्षा परिषद द्वारा प्रतिबंधित जमात-उद-दावा के प्रमुख और अवैध घोषित लश्कर-ए-तोइबा के संस्थापक हाफिज मुहम्मद सईद की सबूतों के अभाव में लाहौर हाईकोर्ट द्वारा रिहाई ने पाकिस्तान के असली सियासी चेहरे को बेनकाब कर दिया है। सईद मुंबई हमले का मुख्य साजिशकर्ता है, जिसका जिक्र पाकिस्तानी आतंकवादी कस्साब ने भी अपने बयान में किया है। भारत में लश्कर के हर हमले के पीछे सईद का हाथ बताया जाता है। 26/11 के बाद पाकिस्तान ने उसे घर में नजर बंद कर दिया था लेकिन अदालत में सरकारी वकील की लचर दलीलों की वजह से उसको छोड़ दिया गया। ऊपर से पाकिस्तान यह कह रहा है कि इस रिहाई के लिए भारत ही जिम्मेदार है क्योंकि उसने मामले में सहयोग नहीं किया। पाकिस्तान अपनी कमजोरी का ठीकरा भारत के सिर फोड़ना चाहता है। लेकिन उसे मालूम है कि सईद की रिहाई का अतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्या असर पड़ेगा। शायद इसीलिए पंजाब की प्रांतीय सरकार ने रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने का फैसला किया है। भले ही यह कदम दिखावे के लिए हो, लेकिन पाकिस्तान अंतराष्ट्रीय स्तर पर यह कह सकता है कि उसने संविधान के तहत कार्रवाई की। पाकिस्तान ने जानबूझकर हाईकोर्ट के सामने सईद के मामले को कमजोर करके पेश किया और बदनाम भारत को कर रहा है। लगे हाथ पाकिस्तान ने आतंकवाद के साथ कश्मीर मसले को जोड़ दिया है। प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने कहा है कि कश्मीर मसला हल होने पर ही स्थायी शांति स्थापित हो सकती है। उन्होंने राष्ट्रसंघ प्रस्ताव और कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात उठाकर निहायत ही बचकानेपन का परिचय दिया है। उनकी यह टिप्पणी किसी भी रूप से जायज नहीं कही जा सकती। पाकिस्तानी रहनुमाओं के लिए कश्मीर एक झुनझुना है, जिसे वे जनता के सामने समय-समय पर बजाते रहते हैं। वहां की जनता इससे खुश हो जाती है। रही बात गिलानी की तो बयान बदलने में उनसे ज्यादा माहिर कोई नहीं। मुंबई हमले के बाद से उनके तमाम बयान इस बात के ठोस सबूत हैं। सईद की रिहाई वैसे भी पाकिस्तान के लिए परेशानी का सबब बनने वाली है। तालिबान के साथ मिलकर लश्कर भी अपने हमले तेज करेगा और उसका खामियाजा बेगुनाहों को भुगतना पड़ेगा। भारत के लिए अच्छा यही होगा कि आतंकवाद के मुद्दे पर वह पाकिस्तान के किसी बहकावे में न आए और अपना दबाव बनाए रखे।

(आज समाज से साभार)

Tuesday, June 2, 2009

सपोले पालना भारत की आदत बन गई है


यह विडंबना ही है कि सपोले पालना भारत की आदत बन गई है। जो लोग भारत माता के सीने को चीरने की बात करते हैं, उन्हें रसद पानी की आपूर्ति करने में भारत के ही लोग सबसे आगे रहते हैं। इसी का उदाहरण है कस्साब को बचाने के लिए जिरह कर रहे वकील के सौगात देने की सरकार ने तैयारी कर ली है। अभी तक सरकार कस्साब की दामाद की तरह खातिरदारी कर रही थी, अब उसका वकील भी मौज करेगा। वकील 26/11 के आतंकाी हमले के मुख्य आरोपी मोहम्म अजमल आमिर कस्साब के कील अब्बास काजमी को महाराष्ट्र सरकार मेहनताने के रूप में प्रतिनि ढाई हजार रुपए ेगी। मामले की सुनाई हर हफ्ते सोमार से शुक्रार तक पांच नि होगी। कस्साब का बचा करने के लिए फीस के रूप में काजमी को हर हफ्ते 12,500 रुपए और हर महीने 50 हजार रुपए का भुगतान किया जाएगा।
आगे-आगे देखिए जनाब क्या-क्या देखने को मिलता है। शायद कस्साब और उसके वकील के लिए देश में ही स्वागत समारोह भी होने लगें।