Friday, April 24, 2009

बिहारीपन को बेचा अब खरीद रहे हैं

बिहार के बिहारीपन को बेचने के बाद प्रकाश झा अब उसे खरीदने पहुंच गए हैं। पश्चिमी चंपारण से लोजपा उम्मीदवार झा को भले ही पार्टी ने लालू के साले के विरोध के बावजूद टिकट दिया हो, लेकिन अपहरण, गंगाजल बनाने वाले प्रकाश भी चुनाव जितने के लिए उन्हीं नेताओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। जब से झा ‘सामाजिक न्याय रथज् पर सवार हुए हैं उन्हें बिहार की संवेदना, उसका पिछड़ापन, गरीबी, अत्याचार नजर नहीं आ रहे हैं। यहां मकसद साफ है। वह सब करने में कोई गुरेज नहीं, जिसका लगातार विरोध करते रहे हैं। सत्ता होती ही ऐसी है। लोगों को अंधा बना देती है। जिनके पास है उसे भी और जो उसकी तलाश में हैं उसे भी।
प्रकाश के कार्यालय पर पुलिस छापे से बरामद दस लाख रुपए उनकी उस साफ स्वच्छ फिल्मी छवि को झूठलाने के लिए काफी है, जिसे पर्दे पर फिल्माकर वह काफी वाहवाही लूट चुके हैं। दरअसल पर्दे का सच, वास्तविक जिंदगी में सच हो यह जरूरी नहीं है। यही कारण है कि देश की गरीबी, मध्यम वर्ग का शोषण और बदहाल जिंदगी को सिनेमा के पर्दे पर बखुबी उतारने वाले कलाकार जब देश की सर्वोच्च संसद में पहुंचते हैं तो उन्हें शायद यह सब दिखाई देना बंद हो जाता है। वह न तो संसद में सवाल पूछते हैं, न ही बैठक में उपस्थित होते हैं। उन्हें गरीबी केवल फिल्मों में ही नजर आता है। अपनी अदाकरी को दमदार बनाने के लिए ये कलाकार भले ही गरीबों के घरों में जाते हों, उनके साथ समय बिताते हों, लेकिन जब उनका भला करने की बात आती है तो उन्हें वह सब नजर नहीं आता है, जिन दिक्कतों से गरीबों को रोजाना रू-ब-रू होना पड़ता है। यह ठीक वैसा ही है जसा राहुल गांधी करते हैं। गरीबों के घर जाते हैं। उन्हें लंबे चौड़े आश्वासन देते हैं और बाद में भूल जाते हैं। उनका उद्धार कोई एनजीओ करता है। चाहे वह कलावती हो या फिर छत्तीसगढ़ और बुंदेलखंड के गांव में बिताई गई रात।
आखिर यह कैसी संवेदना है, जिसे पर्दे पर तो उतारने के लिए पूरी मेहनत की जाती है। यह कहें कि अपने अभिनय से जितनी भी इमानदारी कर सकते हैं, कलाकार करते हैं। क्या इसे कलाकारों की संवेदनहीनता नहीं कहेंगे, जो पर्दे पर तो सब अच्छा करने के दंभ भरते हैं। क्या यह देश के उन हजारों लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है। उन कलाकारों का जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं होता है, वह अगर देश की सर्वोच्च संसद में पहुंचते हैं तो उनका वह खोखलापन सामने आ जाता है, जिसे पर पर्दे पर बखुबी निभाते हैं। इस तरह के नेताओं के राजनीति में प्रवेश का लगातार विरोध होता रहा है। लेकिन राजनीतिक दलों की जिताऊ उम्मीदवारों की खोज फिल्मी कलाकारों पर ही जाकर रुकती है। क्योंकि जनता को वास्तविक मुद्दों से दूर रखने के लिए इनके लटके-झटके ज्यादा कारगर होते हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर हम उन नेताओं को क्यों चुने, जिन्हे चुनावी मौसम में ही हमारी याद आती है। मौसम खत्म यह भी मेंढक की तरह नदारद हो जाते हैं। चाहे वह अमिताभ हों, गोविंदा हों या फिर कोई और। अब इस कड़ी में कोई प्रकाश झा न जुड़ जाए।
मृगेंद्र पांडेय

1 comment:

अजय कुमार झा said...

bahut sahee mudda uthaayaa hai, bhai, waise bhee in film waalon ko dard bech kar paise kamane kee aadat see hotee hai, is baar vote hee sahee, mujhe nahin lagtaa ki prakaash jeet paayenge.