Tuesday, June 16, 2009

यूपीए सरकार की भाषाई अक्षमता

मुंबई हमले के बाद सरकार के गरम तेवर अब नरम पड़ चुके हैं। जमात उद दावा हाफिज मोहम्मद सईद की रिहाई के बाद मनमोहन सिंह का लोकसभा में यह कहना कि हमारे पास बातचीत के अलावा विकल्प नहीं है, इस ओर इशारा भी करते हैं। चुनाव जीतने के बाद सरकार द्वारा मुंबई हमले पर अपनाया गया लचर रवैया बताता है कि ‘तेवरों में वह गर्मी चुनावों तक के लिए ही थी। बहरहाल सरकार को यह सोचना होगा कि रिहाई के बाद हाफिज सईद मस्जिद में नमाज तो नहीं पड़ेगा। अब भारत एक और मुंबई हमला ङोलने के लिए तैयार रहे।

महेंद्र सिंह

आम चुनाव में अप्रत्याशित रूप से मजबूत जनादेश पाकर आत्ममुग्ध हो चुकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार आने वाले पांच सालों में देश को कैसी सरकार देने जा रही है। इस पर लोग अपने अपने-अपने तरीके से विचार प्रकट कर रहे हैं। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर यूपीए सरकार अपनी भाषाई अक्षमता स्पष्ट कर चुकी है। हाल में पाकिस्तान की अदालत ने मुंबई हमले के सूत्रधार हाफिज सईद को यह कहते हुए रिहा कर दिया कि सरकार आरोपी के खिलाफ कोई ऐसा सबूत या दस्तावेज पेश करने में विफल रही है जिससे मुंबई हमले में उसकी संलिप्तता का पता चलता हो। खर भारतीय सरजमीं पर आतंक का नंगा नाच प्रायोजित करने वाले मसूद अजहर और हाफिज सईद के खिलाफ पाकिस्तान सरकार के सख्त रुख अख्तियार करने की उम्मीद मनमोहन सिंह और कुछ कथित बुद्धिजीवी स्तंभकार ही कर सकते हैं जो चौबीसों घंटे पाकिस्तान से बातचीत की वकालत करते रहते हैं। दिलचस्प है कि हाफिज सईद की गिरफ्तारी के बाद भारत सरकार की प्रतिक्रया सिर्फ ‘दुर्भाग्यपूर्णज् पर सीमित होकर रह गई। गरिमा के मानस अवतार शालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उस रात को नींद आई कि नहीं आई। ये तो वही जानें। लेकिन मुंबई हमले में अपने परिजनों को खोने वाले भारतीय, शहीद पुलिस अधिकारियों, सुरक्षा बलों की विधवाओं और बच्चों के साथ हर उस भारतीय को बैचैनी जरूर हुई होगी जिसने 72 घंटे तक मुंबई के जनजीवन को थमते देखा और महसूस किया। सरकार भी वही है। प्रधानमंत्री भी मनमोहन सिंह हैं। फिर अचानक भारतीय नेतृत्व के तेवर इतने नरम क्यों हो गए। ऐसा लगा कि भारत से बहुत दूर कहीं कोई घटना घट गई हो और भारत सरकार को राजनयिक शिष्टाचार के नाते कोई प्रतिक्रया देनी थी। हमारे विदेश मंत्री ने यह कहकर रस्म अदायगी कर दी कि हाफिज सईद की रिहाई दुर्भाग्यपूर्ण है। सही है। हम इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं। पाकिस्तान के पास परमाणु बम है। वैसे भी पाकिस्तान आजकल स्वात और वजीरिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ अमेरिका के पैसे से लड़ाई लड़ रहा है। हमें शिकायत पाकिस्तान से नहीं है। हमें भारत सरकार से भी शिकायत नहीं होती अगर उसने चीख चीख कर मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को हर हाल में न्याय के कटघरे में खड़ा करने की बात न की होती। मनमोहन सिंह जी ने इसके बाद संसद में एक और धमाका कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारे पास पाकिस्तान से बाचचीत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। आम भारतीय को यह बात समझ में नहीं आई कि मुंबई हमले से लेकर आम चुनाव के दौरान मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के लिए इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाई। क्या यह महज संयोग है कि प्रधानमंत्री संसद में पाकिस्तान के साथ बातचीत का संकेत देते हैं और दो चार दिन बाद ही ओबामा के दूत बिलियम बर्न्‍स भारत आकर मनमोहन सिंह को ओबामा के नाम की पाती देते हैं। लगे हाथ बर्न्‍स यह भी कह देते हैं कि कश्मीर के मामले में वहां के लोगों की बात सुनी जानी चाहिए। अब बर्न्‍स को कौन बताए कि कश्मीर में अभी कुछ माह पहले अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में विधानसभा चुनाव हुए हैं और जनता ने अपने प्रतिनिधियों को चुनकर भारतीय लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की है। हां अगर बर्न्‍स आईएसआई के पैसे पर पेट पालने वाले हुर्रियत के नेताओं को ही कश्मीरियों की आकांक्षाओं का प्रतीक मानती है तो ये उनकी समस्या है। एक और दिलचस्प बात है कि जब भी कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं की बात होती है तो अमेरिका, ब्रिटेन और भारतीय नेतृत्व को भी पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले कश्मीर की याद नहीं आती जहां के लोग यह भी नहीं जानते कि लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है। इसके लिए हमारे देश का धर्मनिरपेक्ष मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना भारतीय नेतृत्व। हमारे देश के पत्रकार किसी बर्न्‍स या मिलीबैंड से क्यों नहीं पूंछते कि कश्मीरी अवाम की आकांक्षा क्या भारतीय कश्मीर तक ही सीमित है। सवाल तो अरुंधती राय से भी पूछा जा सकता है कि कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन को लेकर सेना पर आरोप लगाने से पहले उन्हें मुजफ्फराबाद में पिछले सात दशकों से लोकतंत्र के साथ हो रहा बलात्कार क्यों नहीं दिखता। क्या हम मान लें कि विलियम बर्न्‍स ओबामा के उस प्लान को आगे बढ़ाने के लिए आए थे जो उन्होंने कश्मीर विवाद को हल करने के लिए अमेरिकी मतदाताओं के समक्ष प्रस्तुत किया था। यह महज संयोग नहीं हो सकता है कि बर्न्‍स के बाद अगले महीने जुलाई में अमेरिकी की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आ रहीं हैं। कश्मीर जसे पुराने अंतरराष्ट्रीय विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत ही एक मात्र विकल्प है इससे शायद ही कोई इनकार करे लेकिन बातचीत की मेज पर जाने के पहले बातचीत का माहौल तो बने। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को अपने हनीमून पीरियड में सब कुछ अच्छा लग रहा होगा लेकिन ऐसा हर भारतीय के साथ नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व को यह बात समझ लेनी चाहिए कि खुली हवा में सांस ले रहा हाफिज सईद मस्जिद में जाकर इबादत नहीं कर रहा होगा बल्कि वह भारत में एक और आतंकी मंजर की पटकथा लिखने में जी जान से जुट गया हो गया क्योंकि उसकी दुकान इसी से चलती है। मनमोहन जी मुंबई हमले के बाद उभरे आम जनता के आक्रोश को याद करिए और हनीमून सिंड्रोम से जल्दी निकलिए।

3 comments:

Anonymous said...

ye hum sab ki chinta hai. aakhirkar kab tak u hi aatnkavad par rajneeti hoti rahegi, aaor kab tak aese hi masumo ki jane jati rahengi.
esaka uttar kaphi chhota hai, kewal manmohan singh ki pratibadhta ki.

अखिलेश चंद्र said...

Yadi sarkaar kuchh karati to chinta ki kya baat thi. Bharat ka yahi durbhagya hai.Achchha vishay uthaya hai.

Artsy said...

baat to sahi hai.